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एवं जाव अत्थि उट्ठाणे इ वा जाव पुरिसक्करपरक्कमे इ वा । - विया. स. १, उ. ३, सु. १५
१०७. चउबिहाउय बंध पत्रवर्ण
(तमाइक्स एवं खलु चउहि ठाणेहिं जीवा णेरइयत्ताए कम्मं पकरेति णेरइयत्ताए कम्मं पकरेता रइएस उंववज्जंति, तं जहा
"
१. महारंभयाए,
३. पंचिदियवहेणं, तिरिक्खजोणिएसु तं जहा
१. माइल्लयाए णियडिल्लयाए,
२. अलियवयणेणं,
३. उक्कंचणयाए,
४. वंचणयाए ।
मणुस्सेसु तं जहा
१. पगइभद्दयाए,
२. पगइविणीययाए,
३. साणुक्कोसयाए,
४. अमच्छरिययाए ।
देवसुतं जहा १. सरागसंजमेणं,
२. संजमासंजमेणं,
३. अकामणिज्जराए,
४. बालतवोकम्मेण
२. महापरिग्गहयाए,
४. कुणिमाहारेणं,
तमाइक्खइजह परगा गम्मंती जे गरगा जा य वेयणा णरए सारीरमाणसाई दुक्खाइं तिरिक्खजोणीए ॥१ ॥
माणुस व अणिच्वं वाहि-जरा-मरण-येवणापरं । देवे य देवलोए देविद्धिं देवसोक्खाई ॥२॥
रगं तिरिक्खजोणि माणुसभावं च देवलोगं च । सिद्धे अ सिद्धवसहिं छज्जीवणियं परिकहेइ ॥ ३ ॥ जह जीवा बज्झती मुच्चती जह य संकिलिस्सति । जह दुक्खाणं अंत करेंति केई अपडिबद्धा ॥४ ॥
अट्टा अट्टियचित्ता जह जीवा दुक्खसागरमुवेंति । जह बेरग्गमुदगया कम्मसमुग्गं विहार्डेति ॥ ५ ॥ जह रागेण कडाणं कम्माणं पावगो फलविवागो। जह य परिहीणकम्मा सिद्धालयमुवेति ॥ ६ ॥
१०८. कस्स का आउसामित्तं
दुविहे आउए पण्णत्ते, तं जहा
१. अद्धाउए चेव,
२. भवाउए चेव ।
१. ठाणं अ. ४, उ. ४, सु. ३७३
-उव. सु. ५६
द्रव्यानुयोग - (२)
इसी प्रकार यावत् उत्थान से यावत् पुरुषकार - पराक्रम से निर्जरा करते हैं।
१०७. चार प्रकार की आयु के बंध हेतुओं का प्ररूपण
(इसके पश्चात् कहा कि ) जीव चार स्थानों (कारणों) से नरकायु का बन्ध करते हैं और नरकायु का बंध करके विभिन्न नरकों में उत्पन्न होते हैं, यथा
१. महाआरम्भ,
३. पंचेन्द्रिय-वध,
२. महापरिग्रह,
४. मांस भक्षण |
इन कारणों से जीव तिर्यञ्च योनि में उत्पन्न होते हैं,
१. मायापूर्ण निकृति (छलपूर्ण जालसाजी)
२. अलीकवचन (असत्य भाषण)
३. उत्कंचनता अपनी धूर्तता को छिपाए रखना ४. वंचनता ठगी ।
इन कारणों से जीव मनुष्य योनि में उत्पन्न होते हैं,
१. प्रकृति - भद्रता - स्वाभाविक भद्रता सरलता, २. प्रकृतिविनीतता स्वाभाविक विनम्रता,
यथा
यथा
३. सानुक्रोशता- दयालुता,
४. अमत्सरता- ईर्ष्या का अभाव।
इन कारणों से जीव देवयोनि में उत्पन्न होते हैं, यथा
१. सरागसंयम- राग या आसक्तियुक्त चारित्रपालन,
२. संयमासंयम - देशविरति श्रावकधर्म,
३. अकाम-निर्जरा,
४. बाल-तप अज्ञानयुक्त अवस्था में तपस्या । भगवान् ने पुनः कहा
जो नरक में जाते हैं वे (नारक) वहां नैरयिक वेदना का अनुभव करते हैं। तिर्यञ्चयोनिक में गये हुए वहां के शारीरिक और - मानसिक दुःखों को प्राप्त करते हैं ॥१ ॥
मनुष्य भव अनित्य है, उसमें व्याधि वृद्धावस्था मृत्यु और वेदना आदि की प्रचुरता है। देव लोक में देव-दैवी ऋद्धि और दैवी सुख भोगते हैं ॥२॥
भगवान् ने नरक, तिर्यञ्चयोनि, मनुष्य भव, देव लोक, सिद्ध और सिद्धावस्था तथा छह जीव निकाय का निरूपण किया है ॥ ३ ॥ जीव जैसे कर्म बंध करते हैं, मुक्त होते हैं, संक्लेश (मानसिक दु:खों) को प्राप्त करते हैं, कई अप्रतिबद्ध अनासक्त व्यक्ति दुःखों का अंत करते हैं ॥४ ॥
१०८. किसकी कौन-सी आयु का स्वामित्व
आयु दो प्रकार की कही गई है, यथा१. अद्धायु ( भवांतरगामिनी आयु)
२. भवायु (उसी भव की आयु)
दुःखी और आकुल व्याकुल चित्त वाले दुःख रूपी सागर में डूबते हैं और वैराग्य को प्राप्त जीव कर्मदल को ध्वस्त करते हैं ॥ ५ ॥ रागपूर्वक किये गये कर्मों का फल विपाक पाप पूर्ण (अशुभ) होता है। कर्मों से सर्वथा रहित हो सिद्ध सिद्धालय (मुक्ति धाम) को प्राप्त करते हैं।