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द्रव्यानुयोग-(२) १. मिथ्यादृष्टि,
२. सास्वादन सम्यग्दृष्टि, ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि, (मिश्र) ४. अविरतसम्यग्दृष्टि, ५. विरताविरत (देश विरति) ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८. निवृत्तिबादर,
९. अनिवृत्तिबादर, १०. सूक्ष्मसंपराय, उपशमक या क्षपक, ११. उपशान्त मोह, १२. क्षीण मोह, १३. सयोगी केवली, १४. अयोगी केवली।
१७५. कर्म का वेदन किये बिना मोक्ष नहीं
प्र. भंते ! नैरयिक तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य या देव ने जो पापकर्म
किया है, क्या उसका वेदन किये बिना मोक्ष नहीं होता?
१. मिच्छदिट्ठि २. सासायणसम्मदिछि, ३. सम्मामिच्छदिट्ठि, ४. अविरयसम्मदिट्ठि ५. विरयाविरए ६. पमत्तसंजए ७. अप्पमत्तसंजए ८. नियट्टिबायरे ९. अनियट्टिबायरे १०. सुहुमसंपराए-उवसमए वा, खवए वा, ११. उवसंतमोहे १२. खीणमोहे १३. सजोगी केवली १४. अजोगी केवली।
-सम.सम.१४,सु.५ १७५. कम्मे अवेयइत्ता न मोक्खो
प. से Yणं भंते ! नेरइयस्स वा, तिरिक्खजोणियस्स वा,
मणूसस्स वा, देवस्स वा जे कडे पावे कम्मे, नत्थि णं
तस्स अवेयइत्ता मोक्खो? उ. हंता, गोयमा ! नेरइयस्स वा, तिरिक्खजोणियस्स वा,
मणुसस्स वा, देवस्स वा जे कडे पावे कम्मे, नत्थि तस्स
अवेयइत्ता मोक्खो। प. सेकेणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"नेरइयस्स वा जाव देवस्स वा जे कडे पावे कम्मे नत्थि
णं तस्स अवेयइत्ता मोक्खो?" उ. एवं खलु मए गोयमा ! दुविहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा
१. पदेसकम्मे य, २. अणुभागकम्मे य। १. तत्थ णंजंतं पदेसकम्मं तं नियमा वेदेइ। २. तत्थ णं जं तं अणुभागकम्मं तं अत्थेगइयं वेदेइ,
अत्थेगइयं नो वेदेइ। णायमेयं अरहता, सुयमेयं अरहता, विण्णायमेयं अरहता, इमं कम अयं जीवे अब्भोवगमियाए वेदणाए वेइस्सइ,
इमं कम्मं अयं जीवे उवक्कमियाए वेदणाए वेइस्सइ।
उ. हां, गौतम ! नैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य और देव ने
जो पापकर्म किया है, उसका वेदन किये बिना मोक्ष नहीं
होता। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"नैरयिक यावत् देव ने जो पापकर्म किया है उसका वेदन
किये बिना मोक्ष नहीं होता? उ. गौतम ! मैंने कर्म के दो भेद कहे हैं, यथा
१. प्रदेशकर्म, २. अनुभाग कर्म। १. इनमें जो प्रदेश कर्म है, वह अवश्य भोगना पड़ता है, २. इनमें जो अनुभागकर्म है, उसमें से किसी का वेदन
करता है और किसी का नहीं करता है। यह बात अर्हन्त भगवन्त द्वारा ज्ञात है, स्मृत (प्रतिपादित) है और विज्ञात है कि"यह जीव इस कर्म को आभ्युपगमिक (जानते बूझते) वेदना से वेदेगा, यह जीव इस कर्म को औपक्रमिक (क्रमानुसार) वेदना से वेदेगा।" बांधे हए कर्मों के अनसार, निकरणों परिणामों के अनुसार जो जो भगवन्त ने देखा है, जैसा-वैसा वह विपरिणमित होगा।" इसलिए गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"नैरयिक यावत् देव ने जो पाप कर्म किया है उसको कर्म
का वेदन किये बिना मोक्ष नहीं होता।" १७६. व्यवदान के फल का प्ररूपण
प्र. भंते ! व्यवदान (कर्मों के विनाश) से जीव को क्या प्राप्ति
होती है? उ. गौतम ! व्यवदान से जीव अक्रिय (क्रिया रहित) हो जाता
है और अक्रिय होने पर जीव सिद्ध होता है यावत् समस्त
दुःखों का अन्त करता है। १७७. अकर्म जीव की ऊर्ध्व गति होने के हेतुओं का प्ररूपण
प्र. भन्ते ! क्या कर्मरहित जीव की गति होती है? उ. हां, गौतम !(कर्म रहित जीव की गति) होती है।
अहाकम्मं अहानिकरणं जहा तहा तं भगवया दिट्ठ तहा तहा तं विप्परिणामिस्सतीति।
से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"नेरइयस्स वा जाव देवस्स वा जे कडे पावे कम्मे नत्थि
णं तस्स अवेयइत्ता मोक्खो ।" -विया.स.१, उ.४, सु.६ १७६. बोदाणस्स फल परूवणं
प. बोदाणे णं भंते ! जीवे किं जणयइ?
उ. गोयमा ! बोदाणे णं अकिरियं जणयइ, अकिरियाइ
भवित्ता तओ पच्छा सिज्झइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेइ।
-उत्त. अ.२९, सु.२९ १७७. अकम्म जीवस्स उड्ढगई हेऊण परूवणं
प. अस्थि णं भन्ते ! अकम्मस्स गई पण्णायइ? उ. हंता, गोयमा ! अत्थि।