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प. एए णं भंते ! नव पदा किं एगट्ठा नाणाधोसा
नाणावंजणा उदाहु नाणट्ठा नाणाघोसा नाणावंजणा?
उ. गोयमा ! १.चलमाणे चलिए,
२. उदीरिज्जमाणे उदीरिए, ३. वेइज्जमाणे वेइए, ४. पहिज्जमाणे पहीणे। एए णं चत्तारि पदा एगट्ठा नाणाघोसा नाणावंजणा उप्पन्नपक्खस्स। १. छिज्जमाणे छिन्ने, २. भिज्जमाणे भिन्ने, ३. डज्झमाणे डड्ढे, ४. मिज्जमाणे मडे, ५. निज्जरिज्जमाणे निज्जिण्णे, एए णं पंच पदा नाणट्ठा नाणाघोसा नाणावंजणा विगतपक्खस्स।
-विया. स.१, उ.१,सु.५ १७२. कम्मरयादाणवमण हेउ परूवणं
पंचहिं ठाणेहिं जीवा (कम्म) रयं आइज्जति,तं जहा१. पाणाइवाएणं २. मुसावाएणं, ३. अदिण्णादाणेणं, ४. मेहुणेणं, ५. परिग्गहेणं। पंचहिं ठाणेहिं जीवा (कम्म) रयं वमंति,तं जहा१. पाणाइवायवेरमणेणं २.मुसावायवेरमणेणं, ३. अदिण्णादाणवेरमणेणं ४. मेहुणवेरमणेणं,
५. परिग्गहवेरमणेणं। -ठाणं. अ. ५, उ.१, सु. ४२३ १७३. देवेहिं अणंतकम्मंस खय काल परूवणंप. अस्थि णं भंते ! ते देवा जे अणंते कम्मसे जहण्णेणं
एक्केण वा, दोहिं वा, तीहिं वा, उक्कोसेणं पंचंहिं
वाससएहिं खवयंति? उ. हंता, गोयमा ! अत्थि। प. अत्थि णं भंते ! ते देवा जे अणंते कम्मसे जहण्णे एक्केण
वा, दोहिं वा, तीहिं वा, उक्कोसेणं पंचहिं वाससहस्सेहिं
खवयंति? उ. हंता, गोयमा ! अत्थि। प. अत्थि णं भंते ! ते देवा जे अणंते कम्मसे जहण्णेणं
एक्केण वा, दोहिं वा, तीहिं वा, उक्कोसेणं पंचहिं
वाससयसहस्सेहिं खवयंति? उ. हंता, गोयमा ! अत्थि। प. कयरे णं भंते ! ते देवा जे अणंते कम्मसे जहण्णेणं
एक्केण वा जाव पंचहिं वाससएहिं खवयंति?. कयरे णं भंते ! ते देवा जे अणंते कम्मस्से जहण्णेणं एक्केण वा जावपंचहिं वाससहस्सेहिं खवयंति? कयरे णं भंते ! ते देवा जे अणंते कम्मसे जहण्णेणं एक्केण वा जाव पंचहिं वाससयसहस्सेहिं खवयंति?
द्रव्यानुयोग-(२) प्र. भंते ! क्या ये नौ पद, नानाघोष और नाना व्यंजनों वाले
एकार्थक हैं ? या नाना घोष वाले और नाना व्यंजनों वाले
भिन्नार्थक पद हैं? उ. हे गौतम ! १.जो चल रहा है, वह चला,
२. जो उदीरा जा रहा है, वह उदीर्ण हुआ, ३. जो वेदा जा रहा है वह वेदा गया, ४. जो गिर रहा है, वह गिरा, ये चारों पद उत्पन्न पक्ष की अपेक्षा से एकार्थक हैं किन्तु नाना-घोष वाले और नाना-व्यंजनों वाले हैं। १. जो छेदा जा रहा है, वह छिन्न हुआ, २. जो भेदा जा रहा है, वह भिन्न हुआ, ३. जो दग्ध हो रहा है, वह दग्ध हुआ, ४. जो मर रहा है, वह मरा, ५. जो निर्जीर्ण किया जा रहा है, वह निर्जीर्ण हुआ, ये पांचों पद विगतपक्ष की अपेक्षा से नाना अर्थ वाले
नाना-घोष वाले और नाना-व्यंजनों वाले हैं। १७२. कर्म रज के ग्रहण और त्याग के हेतुओं का प्ररूपण
पांच स्थानों से जीव कर्म रज ग्रहण करते हैं, यथा१. प्राणातिपात से, २. मृषावाद से, ३. अदत्तादान से, ४. मैथुन से, ५. परिग्रह से। पांच स्थानों से जीव कर्म रज का त्याग करते हैं, यथा१. प्राणातिपात विरमण से, २. मृषावाद विरमण से, ३. अदत्तादान विरमण से, ४. मैथुन विरमण से,
५. परिग्रह विरमण से। १७३. देवों द्वारा अनन्त कर्माशों के क्षय काल का प्ररूपण
प्र. भंते ! क्या ऐसे भी देव हैं, जो अनन्त कर्माशों को जघन्य
एक सौ, दो सौ या तीन सौ और उत्कृष्ट पांच सौ वर्षों में
क्षय कर देते हैं? उ. हां, गौतम ! (ऐसे देव) हैं। प्र. भंते ! क्या ऐसे भी देव हैं, जो अनन्त कर्मांशों को जघन्य
एक हजार, दो हजार या तीन हजार और उत्कृष्ट पांच
हजार वर्षों में क्षय कर देते हैं। उ. हां, गौतम ! (ऐसे देव) हैं। प्र. भंते ! क्या ऐसे भी देव हैं, जो अनन्त कर्माशों को जघन्य
एक लाख, दो लाख या तीन लाख और उत्कृष्ट पांच लाख
वर्षों में क्षय कर देते हैं ? उ. हां, गौतम ! (ऐसे देव भी) हैं। प्र. भंते ! ऐसे कौन-से देव हैं, जो अनन्त कर्माशों को जघन्य
एक सौ वर्ष यावत्-पांच सौ वर्षों में क्षय करते हैं ? भंते ! ऐसे कौन-से देव हैं जो अनन्त कर्माशों को जघन्य एक हजार वर्ष यावत् पांच हजार वर्षों में क्षय करते हैं? भंते ! ऐसे कौन-से देव हैं, जो अनन्त कर्माशों को जघन्य एक लाख वर्ष यावत् पांच लाख वर्षों में क्षय करते हैं ?