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कर्म अध्ययन
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१५४. ओहेण कम्म वेयण परूवणंएगा वेयणा।
-ठाणं. अ.१,सु.१, १५५. कम्माणुभावेण जीवस्सदुरूव-सुरूवत्ताइ परूवणं
वण्णवज्झाणि य से कम्माई बद्धाई पुट्ठाई निहत्ताई कडाई पट्ठवियाई अभिनिविट्ठाई अभिसमन्नागयाई उदिण्णाई, नो उवसंताई भवंति,
तओ भवइ दुरूवे दुव्वण्णे दुग्गंधे दुरसे दुष्फासे अणिठे अकंते अप्पिए असुभे अमणुण्णे अमणामे हीणस्सरे दीणस्सरे अणिट्ठस्सरे अकंतस्सरे अप्पियस्सरे असुभस्सरे अमणुण्णस्सरे अमणामस्सरे अणादेज्जवयणे पच्चायाए यावि भवइ। वण्णवज्झाणि य से कम्माइं नो बद्धाइं जाव उवसंताई भवइ। तओ भवइ सुरूवे जाव आदेज्जवयणे पच्चायाए याऽवि भवइ।
-विया. स. १, उ.७, सु.२२ १५६. अट्टकम्माणं अणुभावो
प. १.नाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स
जीवेणं बद्धस्स, पुट्ठस्स, बद्ध-फास-पुट्ठस्स, संचितस्स, चितस्स, उवचितस्स, आवागपत्तस्स, विवागपत्तस्स, फलपत्तस्स, उदयपत्तस्स, जीवेणं कडस्स, जीवेणं णिव्वत्तियस्स, जीवेणं परिणामियस्स, सयं वा उदिण्णस्स, परेण वा उदीरियस्स, तदुभएण वा उदीरिज्जमाणस्स, गतिं पप्प, ठिई पप्प, भवं पप्प, पोग्गलं पप्प, पोग्गलपरिणामं पप्प कइविहे अणुभावे
पण्णत्ते? उ. गोयमा ! नाणावरणिज्जस्स णं कम्मस्स
जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प दसविहे अणुभावे पण्णत्ते,तं जहा१. सोयावरणे, २. सोयविण्णाणावरणे, ३. नेत्तावरणे, ४. णेत्तविण्णाणावरणे, ५. घाणावरणे, ६. घाणविण्णाणावरणे, ७. रसावरणे, ८. रसविण्णाणावरणे, ९. फासावरणे, १०. फासविण्णाणावरणे। जं वेदेइ पोग्गलं वा, पोग्गले वा, पोग्गलपरिणामं वा, वीससा वा, पोग्गलाणं परिणाम, तेसिं वा उदएणं जाणियव्वं ण जाणइ, जाणिउकामे वि ण जाणइ, जाणित्ता वि ण जाणइ, उच्छण्णणाणी यावि भवइ,णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं।
१५४. सामान्य से कर्मवेदन का प्ररूपण
वेदना (कर्मानुभव) एक प्रकार का है। १५५. कर्मानुभाव से जीव के कुरूपत्व सुरूपत्व आदि का प्ररूपण
गर्भ से निकलने के पश्चात् उस जीव के कर्म यदि अशुभरूप में बंधे हों, स्पृष्ट हों, निधत्त हों, कृत हों, प्रस्थापित हों, अभिनिविष्ट हों, अभिसमन्वागत हों, उदीर्ण हों और उपशान्त न हों तोवह जीव कुरूप, कुवर्ण, दुर्गन्ध वाला, कुरस वाला, कुस्पर्श वाला, अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ, अमनाम, हीन स्वर, दीन स्वर, अनिष्ट स्वर, अकान्त स्वर, अप्रिय स्वर, अशुभ स्वर, अमनोज्ञ स्वर एवं अमनाम स्वर तथा अनादेय वचन वाला उत्पन्न होता है। यदि उस जीव के कर्म अशुभरूप में न बँधे हुए हों यावत् उपशान्त हों तो वह जीव सुरूप यावत् आदेय वचन वाला उत्पन्न
होता है। १५६. आठ कर्मों का अनुभाव
प्र. १.भंते ! जीव के द्वारा
बद्ध, स्पृष्ट, बद्ध स्पर्श, स्पृष्ट संचित, चित, उपचित, किञ्चित् पाक, विपाक, फल तथा उदय-प्राप्त, जीव द्वारा कृत, निष्पादित, परिणामित, स्वयं के द्वारा उदय प्राप्त, दूसरे के द्वारा उदीरणा-प्राप्त या दोनों द्वारा उदीरित किया गया ज्ञानावरणीय कर्म, गति स्थिति भव, पुद्गल तथा पुद्गलपरिणाम को प्राप्त करके कितने प्रकार का अनुभाव (फल) कहा गया है?
उ. गौतम ! जीव के द्वारा
बद्ध यावत् पुद्गल-परिणाम को प्राप्त ज्ञानावरणीयकर्म का दस प्रकार का अनुभाव (फल) कहा गया है, यथा१. श्रोत्रावरण, २. श्रोत्रविज्ञानावरण, ३. नेत्रावरण, ४. नेत्रविज्ञानावरण, ५. घ्राणावरण, ६. घ्राणविज्ञानावरण, ७. रसावरण, ८. रसविज्ञानावरण,
१०. स्पर्शविज्ञानावरण। जो पुद्गल को या पुद्गलों का पुद्गल-परिणाम को या स्वाभाविक पुद्गलों के परिणाम का वेदन करता है, बद्ध (श्रोत्रावरण आदि के) उदय से जानने योग्य को नहीं जानता, जानने का इच्छुक होकर भी नहीं जानता, जानकर भी नहीं जानता और ज्ञानावरणीयकर्म के उदय से विच्छिन्न ज्ञान वाला होता है। गौतम ! यह ज्ञानावरणीयकर्म है। हे गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल-परिणाम को प्राप्त करके ज्ञानावरणीयकर्म का यह दस प्रकार का अनुभाव (फल) कहा गया है।
एस णं गोयमा ! नाणावरणिज्जे कम्मे। एस णं गोयमा ! नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणाम पप्प दसविहे अणुभावे पण्णत्ते।
१. सम.सम.१सु.३