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कर्म अध्ययन
से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ'जीवाणं कम्मोवचए पयोगसा, नो वीससा'।
एवं जस्स जो पयोगो जाव वेमाणियाणं।
-विया. स. ६, उ.३, सु. ४-५ - १६६. कम्मोवचयस्स साइ सपज्जवसियाइ परूवणं
प. वत्थस्स णं भंते ! पोग्गलोवचए
किं साईए सपज्जवसिए, साईए अपज्जवसिए,
अणाईए सपज्जवसिए, अणाईए अपज्जवसिए? उ. गोयमा ! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए
साईए सपज्जवसिए, नो साईए अपज्जवसिए, नो
अणाईए सपज्जवसिए, नो अणाईए अपज्जवसिए। प. जहाणं भंते ! वत्थस्स पोग्गलोवचए
साईए सपज्जवसिए, नो साईए अपज्जवसिए, नो अणाईए सपज्जवसिए, नो अणाईए अपज्जवसिए। तहा जीवाणं भंते ! कम्मोवचए किं साईए सपज्जवसिए
जावणो अणाईए अपज्जवसिए? उ. गोयमा ! अत्थेगइयाणं जीवाणं कम्मोवचए साईए
सपज्जवसिए, अत्थेगइयाणं अणाईए सपज्जवसिए, अत्थेगइयाणं अणाईए अपज्जवसिए, नो चेवणं जीवाणं कम्मोवचए साईए अपज्जवसिए।
१२०९ इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि'जीवों के कर्मोपचय प्रयोग से होता है, स्वाभाविक रूप से नहीं होता।' इस प्रकार जिस जीव के जो प्रयोग हों वे वैमानिक तक कहने
चाहिए। १६६. कर्मोपचय की सादि सान्तता आदि का प्ररूपण
प्र. भंते ! वस्त्र में पुद्गलों का जो उपचय होता है,
क्या वह सादि सान्त है, सादि अनन्त है, अनादि सान्त है,
या अनादि अनन्त है? उ. गौतम ! वस्त्र में पुद्गलों का जो उपचय है, वह सादि सान्त
है, किन्तु न तो वह सादि अनन्त है,न अनादि सान्त है और
न अनादि अनन्त है। प्र. भंते ! जिस प्रकार वस्त्र में पुद्गलोपचय सादि-सान्त है,
किन्तु सादि-अनन्त, अनादि-सान्त और अनादि-अनन्त नहीं है, भंते ! क्या उसी प्रकार जीवों का कर्मोपचय भी सादि-सान्त
है यावत् अनादि-अनन्त नहीं है? उ. गौतम ! कितने ही जीवों का कर्मोपचय सादि-सान्त है,
कितने ही जीवों का कर्मोपचय अनादि-सान्त है, कितने ही जीवों का कर्मोपचय अनादि-अनन्त है, किन्तु कोई भी जीवों का कर्मोपचय सादि अनन्त नहीं
होता है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि'कितने ही जीवों का कर्मोपचय सादि सान्त है यावत कोई भी जीवों का कर्मोपचय सादि अनन्त नहीं होता है?'
उ. गौतम ! ईर्यापथिक-बन्धक का कर्मोपचय सादि-सान्त है,
प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ
'अत्थेगइयाणं जीवाणं कम्मोवचए साईए सपज्जवसिए जाव नो चेव णं जीवाणं कम्मोवचए साईए
अपज्जवसिए?' उ. गोयमा ! इरियावहियाबंधयस्स कम्मोवचए साईए
सपज्जवसिए, भवसिद्धियस्स कम्मोवचए अणाईए सपज्जवसिए, अभवसिद्धियस्स कम्मोवचए अणाईए अपज्जवसिए। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ“अत्थेगइयाणं जीवाणं कम्मोवचए साईए सपज्जवसिए जाव नो चेव णं जीवाणं कम्मोवचए
साईए अपज्जवसिए।" -विया. स. ६, उ. ३, सु. ६-७ १६७. चउवीसदंडएसुमहाकम्म-अप्पकम्मतराइकारणपरूवणं
भवसिद्धिक जीवों का कर्मोपचय अनादि-सान्त है, अभवसिद्धिक जीवों का कर्मोपचय अनादि-अनन्त है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि'कितने ही जीवों का कर्मोपचय सादि सान्त है यावत् कोई भी जीवों का कर्मोपचय सादि अनन्त नहीं होता है।'
१६७. चौबीसदंडकों में महाकर्म अल्पकर्मत्व आदि के कारणों का
प्ररूपणप्र. दं.१. भंते ! दो नैरयिक एक ही नरकावास में नैरयिकरूप
से उत्पन्न हुए उनमें से एक नैरयिक महाकर्म वाला, महाक्रियावाला, महाश्रव वाला और महावेदना वाला होता है.
प. द. १. दो भंते ! नेरइया एगसि नेरइयावासंसि
नेरइयत्ताए उववन्ना, तत्थ णं एगे नेरइए महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव, महासवतराए चेव, महावेयणतराए चेव, एगे नेरइए अप्पकम्मतराए चेव, अप्पकिरियतराए चेव, अप्पासवतराए चेव,अप्पवेयणतराए चेव। से कहमेयं भंते ! एवं?
एक नैरयिक अल्पकर्म वाला, अल्पक्रियावाला, अल्पाश्रव वाला और अल्पवेदना वाला होता है। भंते ! ऐसा क्यों?