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कर्म अध्ययन १३४. अणंतरखेदोववन्नगाइसु चउवीसदंडएसु आउयबंध-
विहि-णिसेहो परूवणंप. १.दं.१. अणंतर खेदोववण्णगाणं भंते ! णेरइया किं
णेरइयाउयं पकरेंति जाव देवाउयं पकरेंति? उ. गोयमा ! नो णेरइयाउयं पकरेंति जाव नो देवाउयं
पकरेंति। प. २. परम्पर खेदोववन्नगा णं भंते ! णेरइया किं
णेरइयाउयं पकरेंति जाव देवाउयं पकरेंति? उ. गोयमा ! णेरइयाउयं पि पकरेंति जाव देवाउयं पि
पकरेंति। प. ३. अणंतर-परम्पर खेदाणुववण्णगा णं भंते ! किं __नेरइयाउयं पकरेंति, जाव देवाउयं पकरेंति? उ. गोयमा ! नो णेरइयाउयं पि पकरेंति जाव नो देवाउयं पि
पकरेंति। दं.२-२४. एवं णिरवसेसंजाव वेमाणिया।
-विया.स.१४, उ.१, सु.२० १३५. जीव-चउवीसदण्डएसु एगत्त-पुहत्तेणं सयंकडं आउवेयण
परूवणंप. जीवेणं भंते ! सयंकडं आउयं वेदेइ ? उ. गोयमा ! अत्यंगइयं वेदेइ, अत्थेगइयं नो वेदेइ।
प. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ
अत्थेगइयं वेदेइ, अत्थेगइयं नो वेदेइ।
१३४. अनन्तर खेदोपपन्नक आदि चौबीस दण्डकों में आयु बंध के
विधि-निषेध का प्ररूपणप्र. १. दं. १. भंते ! अनन्तर खेदोपपन्नक नैरयिक क्या
नरकायु का बंध करते हैं यावत् देवायु का बंध करते हैं? उ. गौतम ! वे न नरकायु का बंध करते हैं यावत् न देवायु का
बंध करते हैं। प्र. २. भंते ! परम्पर खेदोपपन्नक नैरयिक क्या नरकायु का
बंध करते हैं यावत् देवायु का बंध करते हैं? उ. गौतम ! नरकायु का भी बंध करते हैं यावत् देवायु का भी
बंध करते हैं। प्र. ३. भंते ! अनन्तर-परम्पर खेदोनुपपन्नक नैरयिक क्या
नरकायु का बंध करते हैं यावत देवाय का बंध करते हैं? उ. गौतम ! वे न नरकायु का बंध करते हैं यावत् न देवायु का
बंध करते हैं। दं.२-२४. इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त सभी दण्डकों में
कहना चाहिए। १३५. जीव-चौबीस दण्डकों में एक-अनेक की अपेक्षा स्वयंकृत
आयु वेदन का प्ररूपणप्र. भंते ! क्या जीव स्वयंकृत आयु का वेदन करता है? उ. गौतम ! किसी का वेदन करता है और किसी का वेदन नहीं
करता है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है किकिसी का वेदन करता है और किसी का वेदन नहीं
करता है। उ. गौतम ! उदीर्ण का वेदन करता है और अनुदीर्ण का वेदन
नहीं करता है। इस कारण से गौतम । ऐसा कहा जाता है कि'किसी कावेदन करता है और किसी का वेदन नहीं करता है।' दं.१-२४. इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों पर्यन्त चौबीस दण्डक कहने चाहिए। अनेक जीवों की अपेक्षा भी इसी प्रकार कहना चाहिए। दं. १-२४. नैरयिकों से वैमानिकों तक भी इसी प्रकार
जानना चाहिए। १३६. देव का च्यवन के पश्चात् भवायु का प्रतिसंवेदन. प्र. भंते ! महान् ऋद्धिवाला, महान् धुति वाला, महान् बलवाला,
महायशस्वी, महासुखी, महाप्रभावशाली, मरणकाल में च्यवते हुए कोई देव लज्जा के कारण, घृणा के कारण, परीषह के कारण कुछ समय तक आहार नहीं करता है, तत्पश्चात् आहार करता है और ग्रहण किया हुआ आहार परिणत भी होता है, अन्त में उस देव की वहाँ की आयु सर्वथा नष्ट हो जाती है। इसलिए वह देव जहां उत्पन्न होता है, क्या वहां की आयु भोगता है, यथातिर्यञ्चयोनिकायु और मनुष्यायु।
उ. गोयमा ! उदिण्णं वेदेइ, अणुदिण्णं नो वेदेइ।
से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ'अत्थेगइयं वेदेइ, अत्थेगइयं नो वेदेइ।' दं. १-२४. एवं चउवीसदण्डएणं नेरइएणं जाव वेमाणिए। पुहत्तेण वि एवं चेव, दं.१-२४. नेरइया जाव वेमाणिया।
-विया.स.१,उ.२.सु.४ १३६. देवस्स चवणाणंतर भवाउयपडिसंवेदणं
प. देवेणं भंते ! महिड्ढिए महज्जुईए महब्बले महायसे
महेसक्खे महाणुभावे अविउक्कंतियं चयमाणे किं चि वि कालं हिरिवत्तियं दुगुंछावत्तियं परिस्सहवत्तियं आहारं नो आहारेइ, अहेणं आहारेइ, आहारिज्जमाणे आहारिए,
परिणामिज्जमाणे परिणामिए पहीणे य आउए भवइ, . जत्थ उववज्जइ तमाउयं पडिसंवेदेइ, तं जहा
तिरिक्खजोणियाउयं वा, मणुस्साउयं वा