________________
११७८
उ. हता, गोयमा ! देवेणं महिड्ढिए जाव मणुस्साउयं वा पडिसंवेदेइ।
-विया. स. १, उ.७, सु.९ १३७. चउवीसदंडएसु आगामिभवआउय संवेदणाई पडुच्च
परूवणंप. दं. १. नेरइए णं भंते ! अणंतरं उव्वट्टित्ता जे भविए पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिएसु उववज्जित्तए, से णं भंते !
कयरं आउयं पडिसंवेदेइ? उ. गोयमा ! नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ पंचेंदिय-तिरिक्ख
जोणियाउए से पुरओ कडे चिट्ठइ।
दं.२१.एवं मणुस्सेसु वि।
णवर-मणुस्साउए से पुरओ कडे चिट्ठइ। प. दं. २. असुरकुमारे णं भंते! अणंतरं उव्वट्टित्ता जे
भविए पुढविकाइएसु उववज्जित्तए,
से णं भंते ! कयरं आउयं पडिसंवेदेइ? उ. गोयमा ! असुरकुमाराउयं पडिसंवेदेइ पुढविकाइयाउए
से पुरओ कडे चिट्ठइ।
द्रव्यानुयोग-(२) उ. हां, गौतम ! वह महा ऋद्धि वाला देव यावत् च्यवन (मृत्यु)
के पश्चात् तिर्यञ्च या मनुष्यायु का अनुभव करता है। १३७. चौबीस दण्डकों में आगामी भवायु का संवेदनादि की अपेक्षा
का प्ररूपणप्र. दं. १. भंते ! जो नैरयिक मरकर अन्तर-रहित सीधे
पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होने वाला है तो भंते !
वह किस आयु का प्रतिसंवेदन करता है? उ. गौतम ! वह नैरयिक नरकायु का प्रतिसंवेदन करता है और
पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक के आयु को उदयाभिमुख करके रहता है। दं. २१. इसी प्रकार मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य नैरयिक के विषय में समझना चाहिए।
विशेष-मनुष्य के आयु को उदयाभिमुख करके रहता है। प्र. दं. २. भंते ! जो असुरकुमार मरकर अन्तर रहित
पृथ्वीकायिक जीवों में उत्पन्न होने वाला है, तो भंते ! वह
किस आयु का प्रतिसंवेदन करता है? उ. गौतम ! वह असुरकुमार के आयु का प्रतिसंवेदन करता है
और पृथ्वीकायिक के आयु को उदयाभिमुख करके रहता है। इस प्रकार जो जीव जहाँ उत्पन्न होने योग्य है, वह उसक आयु को उदयाभिमुख करके रहता है और जहाँ है वहाँ के आयु का वेदन करता है। दं. ३-२४. इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष-जो पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिकों में ही उत्पन्न होने वाला है, वह पृथ्वीकायिक के आयु का वेदन करता है
और अन्य पृथ्वीकायिक के आयु को उदयाभिमुख करके रहता है। इसी प्रकार यावत् जो मनुष्य मनुष्यों में उत्पन्न होन वाला है वह मनुष्यायु का प्रतिसंवेदन करता है और अन्य मनुष्यायु को उदयाभिमुख करके रहता है।
एवं जो जहिं भविओ उववज्जित्तए तस्स तं पुरओ कडे चिट्ठइ, जत्थ ठिओतं पडिसंवेदेइ।
दं.३-२४.एवं जाव वेमाणिए। णवरं-पुढविकाइओ पुढविकाइएसु उववज्जंतओ पुढविकाइयाउयं पडिसंवेदेइ, अन्ने य से पुढविकाइयाउए पुरओ कडे चिट्ठइ।
एवं जाव मणुस्सो मणुस्सेसु उववज्जंतओ मणुस्साउयं पडिसंवेदेइ। अन्ने य से मणुस्साउए पुरओ कडे चिट्ठइ।
-विया. स. १८,उ.५, सु.८-११ १३८.एग समए इह-परभव आउयवेयण णिसेहो
प. अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव परूवेंति
से जहानामए जालगंठिया सिया आणुपुव्विगढिया अणंतरगढिया परंपरगढिया अन्नमन्नगढिया अन्नमन्नगरुयत्ताए
अन्नमन्नभारियत्ताए अन्नमन्नगरुयसंभारियत्ताएअन्नमन्नघडत्ताए चिट्ठइ,
१३८. एक समय में इह-परभव आयु वेदन का निषेध
प्र. भंते ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते
हैं कि-जैसे कोई (एक) जालग्रन्थि (गांठे लगी हुई, जाल) हो, जिसमें क्रम से गांठे दी हुई हो, एक के बाद दूसरी अन्तररहित गांठे लगाई हुई हो, परम्परा से गूंथी हुई हो, परस्पर गूंथी हुई हो, ऐसी वह जालग्रन्थि परस्पर विस्तार रूप से, परस्पर भाररूप से तथा परस्पर विस्तार और भाररूप से, परस्पर संघटित रूप से है, वैसे ही बहुत-से जीवों के साथ क्रमशः हजारों लाखों जन्मों से सम्बन्धित बहुत से आयुष्य परस्पर क्रमशः गूंथे हुए हैं यावत् परस्पर संलग्न हैं। ऐसी स्थिति में एक जीव एक समय में दो आयु का वेदन (अनुभव) करता है, यथा१. इस भव की आयु का, २. परभव की आयु का।
एवामेव बहूणं जीवाणं बहूसु आजाइसहस्सेसु बहूई आउयसहस्साई आणुपुव्विगढियाइं जाव अन्नमन्नघडताए चिट्ठति। एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं दो आउयाई पडिसंवेदयइ,तं जहा१.इहभवियाउयं च,२.परभवियाउयं च।