________________
कर्म अध्ययन
प. कहं णं भंते ! पुढविकाइया कंखामोहणिज्जं कम्म
वेदेति? उ. गोयमा ! तेसिं णं जीवाणं णो एवं तक्का इवा, सण्णा इ
वा, पण्णा इ वा, मणे इ वा, वई इ वा, अम्हे णं
कंखामोहणिज्जं कम्मं वेएमो वेदेति पुण ते। प. से णूणं भंते ! तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं?
उ. हंता, गोयमा !तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं।
एवं जाव अत्थि तं उठाणे इ वा जाव पुरिसक्कारपरक्कमेइ वा। दं.१३-१९ एवं जाव चउरिंदिया।
११५७ प्र. भंते ! पृथ्वीकायिक जीव किस प्रकार कांक्षामोहनीयकर्म का
वेदन करते हैं? उ. गौतम ! उन जीवों को ऐसा तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, मन या वचन
नहीं होता है कि हम कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं, किन्तु वे उसका वेदन अवश्य करते हैं। प्र. भंते ! क्या यही सत्य और निःशंक है, जो जिन-भगवन्तों
द्वारा प्ररूपित है? उ. हां, गौतम ! वही सत्य है, निःशंक है जो जिनेन्द्रों द्वारा
प्ररुपित है। इसी प्रकार यावत् उत्थान से यावत् पुरुषकार-पराक्रम से निर्जरा करते हैं। दं. १३-१९ इसी प्रकार चतुरिन्द्रियजीवों पर्यन्त जानना चाहिए। दं. २०-२४ जैसे सामान्य जीवों के विषय में कहा है, वैसे ही पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से वैमानिकों पर्यन्त कहना
चाहिए। १०५. कांक्षा मोहनीय कर्म वेदन के कारण
प्र. भंते ! क्या जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं ? उ. हां, गौतम ! वेदन करते हैं। प्र. भंते ! जीव कांक्षामोहनीय कर्म का किस प्रकार वेदन
करते हैं? उ. गौतम ! उन-उन (अमुक-अमुक) कारणों से शंकायुक्त,
कांक्षायुक्त, विचिकित्सायुक्त, भेदसमापन्न एवं कलुषसमापन्न होकर जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं।
दं. २०-२४ पंचेदिय-तिरिक्खजोणिया जाव वेमाणिया जहा ओहिया जीवा। -विया. स.१,उ.३, सु.१४
१०५. कंखामोहणिज्जकम्मवेयणकारणाणि
प. जीवाणं भंते ! कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेति? उ. हंता, गोयमा ! वेदेति। प. कहं णं भंते ! जीवा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेति?
उ. गोयमा ! तेहिं तेहिं कारणेहिं संकिया कंखिया
वितिगिंछिया भेदसमावन्ना कलुससमावन्ना एवं खलु जीवा कंखामोहणिज्ज कम्मं वेदेति।
-विया.स. १, उ.३, सु. ४-५ १०६. निग्गंथे पडुच्च कंखामोहणिज्ज कम्मस्स वेयणवियारो-
प. अस्थि णं भंते ! समणा वि निग्गंथा कंखामोहणिज्ज
कम्मं वेदेति? उ. हंता, गोयमा ! अत्थि। प. कहं णं भंते ! समणा वि निग्गंथा कंखामोहणिज्ज कम्म
वेदेति? उ. गोयमा ! तेहिं तेहिं नाणंतरेहिं दंसणंतरेहिं चरित्तंतरेहि लिंगंतरेहिं पवयणंतरेहिं, पावयणंतरेहिं, कप्पंतरेहि, मग्गंतरेहि, मतंतरेहिं, भंगंतरेहिं, नयंतरेहि, नियमंतरेहि,पमाणतरेहिं, संकिया कंखिया वितिगिछिया भेदसमावन्ना, कलुससमावन्ना एवं खलु समणा निग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेति। प. से नूणं भंते ! तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं?
१०६. निर्ग्रन्थों की अपेक्षा कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन का
विचारप्र. भंते ! क्या श्रमणनिर्ग्रन्थ भी कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन
करते हैं? उ. हां, गौतम ! वे भी वेदन करते हैं। प्र. भंते ! श्रमणनिर्ग्रन्थ कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन किस
प्रकार करते हैं? उ. गौतम ! उन-उन कारणों से ज्ञानान्तर, दर्शनान्तर,
चारित्रान्तर, लिंगान्तर, प्रवचनान्तर, प्रावचनिकान्तर, कल्पान्तर, मार्गान्तर, मतान्तर, भंगान्तर, नयान्तर, नियमान्तर और प्रमाणान्तरों के द्वारा शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेदसमापन्न और कलुषसमापन्न होकर श्रमणनिर्ग्रन्थ भी कांक्षामोहनीय कर्म
का वेदन करते हैं। प्र. भंते ! क्या वही सत्य और निःशंक है, जो जिन भगवन्तों ने
प्ररूपित किया है? उ. हां, गौतम ! वही सत्य और निःशंक है, जो जिन भगवन्तों
द्वारा प्ररूपित है।
उ. हता, गोयमा ! तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं ।