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________________ ११५८ एवं जाव अत्थि उट्ठाणे इ वा जाव पुरिसक्करपरक्कमे इ वा । - विया. स. १, उ. ३, सु. १५ १०७. चउबिहाउय बंध पत्रवर्ण (तमाइक्स एवं खलु चउहि ठाणेहिं जीवा णेरइयत्ताए कम्मं पकरेति णेरइयत्ताए कम्मं पकरेता रइएस उंववज्जंति, तं जहा " १. महारंभयाए, ३. पंचिदियवहेणं, तिरिक्खजोणिएसु तं जहा १. माइल्लयाए णियडिल्लयाए, २. अलियवयणेणं, ३. उक्कंचणयाए, ४. वंचणयाए । मणुस्सेसु तं जहा १. पगइभद्दयाए, २. पगइविणीययाए, ३. साणुक्कोसयाए, ४. अमच्छरिययाए । देवसुतं जहा १. सरागसंजमेणं, २. संजमासंजमेणं, ३. अकामणिज्जराए, ४. बालतवोकम्मेण २. महापरिग्गहयाए, ४. कुणिमाहारेणं, तमाइक्खइजह परगा गम्मंती जे गरगा जा य वेयणा णरए सारीरमाणसाई दुक्खाइं तिरिक्खजोणीए ॥१ ॥ माणुस व अणिच्वं वाहि-जरा-मरण-येवणापरं । देवे य देवलोए देविद्धिं देवसोक्खाई ॥२॥ रगं तिरिक्खजोणि माणुसभावं च देवलोगं च । सिद्धे अ सिद्धवसहिं छज्जीवणियं परिकहेइ ॥ ३ ॥ जह जीवा बज्झती मुच्चती जह य संकिलिस्सति । जह दुक्खाणं अंत करेंति केई अपडिबद्धा ॥४ ॥ अट्टा अट्टियचित्ता जह जीवा दुक्खसागरमुवेंति । जह बेरग्गमुदगया कम्मसमुग्गं विहार्डेति ॥ ५ ॥ जह रागेण कडाणं कम्माणं पावगो फलविवागो। जह य परिहीणकम्मा सिद्धालयमुवेति ॥ ६ ॥ १०८. कस्स का आउसामित्तं दुविहे आउए पण्णत्ते, तं जहा १. अद्धाउए चेव, २. भवाउए चेव । १. ठाणं अ. ४, उ. ४, सु. ३७३ -उव. सु. ५६ द्रव्यानुयोग - (२) इसी प्रकार यावत् उत्थान से यावत् पुरुषकार - पराक्रम से निर्जरा करते हैं। १०७. चार प्रकार की आयु के बंध हेतुओं का प्ररूपण (इसके पश्चात् कहा कि ) जीव चार स्थानों (कारणों) से नरकायु का बन्ध करते हैं और नरकायु का बंध करके विभिन्न नरकों में उत्पन्न होते हैं, यथा १. महाआरम्भ, ३. पंचेन्द्रिय-वध, २. महापरिग्रह, ४. मांस भक्षण | इन कारणों से जीव तिर्यञ्च योनि में उत्पन्न होते हैं, १. मायापूर्ण निकृति (छलपूर्ण जालसाजी) २. अलीकवचन (असत्य भाषण) ३. उत्कंचनता अपनी धूर्तता को छिपाए रखना ४. वंचनता ठगी । इन कारणों से जीव मनुष्य योनि में उत्पन्न होते हैं, १. प्रकृति - भद्रता - स्वाभाविक भद्रता सरलता, २. प्रकृतिविनीतता स्वाभाविक विनम्रता, यथा यथा ३. सानुक्रोशता- दयालुता, ४. अमत्सरता- ईर्ष्या का अभाव। इन कारणों से जीव देवयोनि में उत्पन्न होते हैं, यथा १. सरागसंयम- राग या आसक्तियुक्त चारित्रपालन, २. संयमासंयम - देशविरति श्रावकधर्म, ३. अकाम-निर्जरा, ४. बाल-तप अज्ञानयुक्त अवस्था में तपस्या । भगवान् ने पुनः कहा जो नरक में जाते हैं वे (नारक) वहां नैरयिक वेदना का अनुभव करते हैं। तिर्यञ्चयोनिक में गये हुए वहां के शारीरिक और - मानसिक दुःखों को प्राप्त करते हैं ॥१ ॥ मनुष्य भव अनित्य है, उसमें व्याधि वृद्धावस्था मृत्यु और वेदना आदि की प्रचुरता है। देव लोक में देव-दैवी ऋद्धि और दैवी सुख भोगते हैं ॥२॥ भगवान् ने नरक, तिर्यञ्चयोनि, मनुष्य भव, देव लोक, सिद्ध और सिद्धावस्था तथा छह जीव निकाय का निरूपण किया है ॥ ३ ॥ जीव जैसे कर्म बंध करते हैं, मुक्त होते हैं, संक्लेश (मानसिक दु:खों) को प्राप्त करते हैं, कई अप्रतिबद्ध अनासक्त व्यक्ति दुःखों का अंत करते हैं ॥४ ॥ १०८. किसकी कौन-सी आयु का स्वामित्व आयु दो प्रकार की कही गई है, यथा१. अद्धायु ( भवांतरगामिनी आयु) २. भवायु (उसी भव की आयु) दुःखी और आकुल व्याकुल चित्त वाले दुःख रूपी सागर में डूबते हैं और वैराग्य को प्राप्त जीव कर्मदल को ध्वस्त करते हैं ॥ ५ ॥ रागपूर्वक किये गये कर्मों का फल विपाक पाप पूर्ण (अशुभ) होता है। कर्मों से सर्वथा रहित हो सिद्ध सिद्धालय (मुक्ति धाम) को प्राप्त करते हैं।
SR No.090159
Book TitleDravyanuyoga Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj & Others
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1995
Total Pages806
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Metaphysics, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size29 MB
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