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१. से णं तत्थ अन्ने देवे अन्नेसिं देवाणं देवीओ
अभिजुंजिय-अभिजुंजिय परियारेइ। २. अप्पणिच्चियाओ देवीओ अभिमुंजिय-अभिजुंजिय
परियारेइ। ३. नो अप्पणामेव अप्पाणं विउव्विय-विउव्विय
परियारेइ, एगे वि य णं जीवे एगेणं समएणं एगं वेयं वेएइ,तं जहा
१. इथिवेयं वा, २. पुरिसवेयं वा।। १. जं समयं इत्थिवेयं वेएइ, नो तं समयं पुरिसवेयं
वेएइ। २. जं समयं पुरिसवेयं वेएइ, नो तं समयं इत्थिवेयं वेएइ।
( द्रव्यानुयोग-(२)) १. वह देव वहाँ दूसरे देवों की देवियों को वश में करके
उनके साथ परिचारणा करता है, २. अपनी देवियों को ग्रहण करके उनके साथ भी परिचारणा
करता है, ३. किन्तु स्वयं वैक्रिय करके अपने विकुर्वित रूप के साथ
परिचारणा नहीं करता, अतः एक जीव एक समय में दोनों वेदों में से किसी एक वेद का ही अनुभव करता है, यथा१. स्त्रीवेद,
२. पुरुषवेद। १. जब स्त्रीवेद को वेदता (अनुभव करता) है, तब पुरुषवेद
को नहीं वेदता, २. जिस समय पुरुषवेद को वेदता है, उस समय स्त्रीवेद को
नहीं वेदता। स्त्रीवेद का उदय होने से पुरुषवेद को नहीं वेदता, पुरुषवेद का उदय होने से स्त्रीवेद को नहीं वेदता। अतः एक जीव एक समय में दोनों वेदों में से किसी एक को ही वेदता है, यथा१. स्त्रीवेद,
२. पुरुषवेद। जब स्त्रीवेद का उदय होता है, तब स्त्री पुरुष की अभिलाषा करती है। जब पुरुषवेद का उदय होता है, तब पुरुष स्त्री की अभिलाषा करता है। अर्थात् दोनों परस्पर एक दूसरे की इच्छा करते हैं, यथा१. स्त्री पुरुष की, २. पुरुष स्त्री की।
इत्थिवेयस्स उदएणं नो पुरिसवेयं वेएइ, पुरिसवेयस्स उदएणं नो इथिवेयं वेएइ। एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं वेयं वेएइ,तं जहा
१. इथिवेयं वा, २. पुरिसवेयं वा। इत्थी इत्थिवेएणं उदिण्णेणं पुरिसं पत्थेइ।
पुरिसो पुरिसवेएणं उदिण्णेणं इत्थिं पत्थेइ।
दो वि ते अण्णमण्णं पत्थेंति,तं जहा१. इत्थी वा पुरिसं, २. पुरिसे वा इत्थिं।
-विया. स. २, उ.५, सु.१ ७. सवेयग-अवेयगजीवाणं कायट्ठिई
प. सवेयए णं भंते ! सवेयए त्ति कालओ केविचर होइ?
उ. गोयमा ! सवेयए तिविहे पण्णत्ते,तं जहा
१. अणाईए वा अपज्जवसिए। २. अणाईए वा सपज्जवसिए। ३. साईए वा सपज्जवसिए। तत्थ णं जं से साईए सपज्जवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतंकालं, अणंताओ उस्सप्पिणि- ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवढं
पोग्गलपरियटें देसूणं। प. इथिवेएणं भंते ! इत्थिवेए त्ति कालओ केवचिरं होइ ?
७. सवेदक-अवेदक जीवों की कायस्थितिप्र. भंते ! सवेदक वाला जीव सवेदक के रूप में कितने काल तक
रहता है? उ. गौतम ! सवेदक तीन प्रकार के कहे गये हैं,यथा
१. अनादि-अपर्यवसित २. अनादि-सपर्यवसित ३. सादि-सपर्यवसित उनमें से जो सादि-सपर्यवसित हैं, वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक, अर्थात् काल से अनन्त उत्सर्पिणीअवसर्पिणी तक और क्षेत्र से देशोन अपार्ध पुद्गल परावर्तन
पर्यन्त (जीव सवेदक रहता है) ... प्र. भंते ! स्त्री वेद वाला जीव स्त्रीवेदक के रूप में कितने काल
तक रहता है? गौतम ! १. एक मान्यता (अपेक्षा) से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट साधिक पूर्वकोटिपृथक्त्व एक सौ दस पल्योपम तक रहता है।
उ. गोयमा ! १. एगेणं आएसेणं जहण्णेणं एक्कं समय,
उक्कोसेणं दसुत्तरं पलिओवमसयं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियं।
१. जीवा. पडि.९, सु. २३२