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द्रव्यानुयोग - (२)
संख्यातवर्षायुष्क और असंख्यातवर्षायुष्क। इनमें असंख्यातवर्षायुष्क जीव छह मास आयु शेष रहने पर परभव की आयु का बंध करते हैं तथा संख्यात वर्ष की आयु वाले जीव दो प्रकार के हैं - १. सोपक्रम आयु वाले और २. निरुपक्रम आयु वाले। इनमें आयुबंध पृथ्वीकाय के सदृश होता है। आयुबंध के सम्बन्ध में यह स्पष्ट संकेत है कि एक जीव एक समय में एक आयु का बंध करता है, इस भव की या परभव की आयु का ।
असंज्ञी जीव की दृष्टि से चारों आयु असंझी के भी हो सकती हैं। इनमें देव असंज्ञी आयु सबसे अल्प है, नरक असंझी आयु सर्वाधिक हैं। तिर्यञ्य एवं मनुष्य में अकाल मृत्यु संभव है एतदर्थ आयुक्षय के सात कारण हैं - १. रागादि की तीव्रता, २. निमित्त-शस्त्रादि का प्रयोग, ३. आहार की न्यूनाधिकता, ४. वेदना की तीव्रता, ५. पराघात चोट, ६. स्पर्श सांप आदि का विद्युत का और ७. आनपान निरोध बंधे हुए कर्म जीव के साथ जितने समय तक टिकते हैं उसे उनका स्थितिकाल कहते हैं। बद्ध कर्म का उदयरूप या उदीरण रूप प्रवर्तन जिस काल में नहीं होता उसे अबाधा या अबाधाकाल कहते हैं। कर्मों के उदयाभिमुख होने का काल निषेक काल है। अबाधा काल सामान्यतया कर्म के उत्कृष्ट स्थिति काल के अनुपात में होता है। उसका नियम है एक कोटाकोटि स्थिति की उत्कृष्ट अबाधा एक सौ वर्ष । प्रत्येक बद्धं कर्म का स्थितिकाल भिन्न-भिन्न होता है अतः उनका अबाधाकाल भी भिन्न-भिन्न होता है। अबाधा काल से न्यून कर्म निषेक काल होता है। इन सबका प्रत्येक कर्म प्रकृति में निरूपण इस अध्ययन में हुआ है।
वेदन कर्मोदय का द्योतक है। प्रत्येक कर्म का वेदन भिन्न-भिन्न होता है। क्योंकि उनका अनुभाव अर्थात् फल भिन्न-भिन्न होता है। जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल परिणाम को प्राप्त ज्ञानावरणीय कर्म का अनुभाव श्रोत्रावरण आदि के भेद से दस प्रकार का, दर्शनावरणीय कर्म का अनुभाव निद्रादि के भेद से नौ प्रकार का, सातावेदनीय कर्म का अनुभाव मनोज्ञ शब्द आदि के भेद से आठ प्रकार का होता है। अमनोज्ञ शब्दादि के भेद से असातावेदनीय का अनुभाव भी आठ प्रकार का होता है। जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल परिणाम को प्राप्त मोहनीय कर्म का अनुभाव सम्यक्त्ववेदनीय आदि के भेद से पांच प्रकार का, आयु कर्म का अनुभाव नरकायु आदि के भेद से चार प्रकार का, शुभ नाम कर्म का अनुभाव इष्ट शब्द इष्टरूप यावत् मनोज्ञ स्वर के भेद से १४ प्रकार का, इसके विपरीत अशुभ नाम कर्म का अनुभाव अनिष्ट शब्द यावत् अकान्त स्वर के भेद से १४ प्रकार का होता है, उच्चगोत्र का अनुभाव जाति, कुल आदि के वैशिष्ट्य से आठ प्रकार का तथा इनकी हीनता से नीचगोत्र का अनुभाव भी आठ प्रकार का होता है। अन्तराय कर्म के जो दानान्तरायादि पांच भेद हैं वे ही उसके अनुभाव हैं।
इस अध्ययन के अन्त में कर्म सिद्धान्त से सम्बद्ध विविध तथ्यों का संकलन है, यथा-ज्ञानावरण आदि कर्मों के अविभाग प्रतिच्छेद का कथन, कर्मों के प्रदेशाग्र व वर्णादि का प्ररूपण, कर्मोपचय एवं सादि सान्तता का कथन, महाकर्म अल्पकर्म का निरूपण आदि। कर्मपुद्गल का नहीं छेदने योग्य अंतिम खण्ड अविभाग प्रतिच्छेद होता है। एक समय में बंधने वाले समस्त कर्मों का प्रदेशाग्र अनन्त होता है। ज्ञानावरणीय से अन्तराय तक सभी कर्म पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और चार स्पर्श वाले होते हैं। जीवों के कर्मों का उपचय मन वचन व काया के प्रयोग से होता है, अपने आप नहीं । स्थावरों एवं विकलेन्द्रियों में मन प्रयोग नहीं होता। कर्मोंपचय सादि सान्त, अनादि सान्त और अनादि अनन्त रूप होता है। किन्तु सादि अनन्त नहीं होता। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में न महाकर्म होता है, न महाक्रिया, न महाश्रव और न ही महावेदना। शेष जीव दो प्रकार के होते हैं - १. मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक और २. अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नक इनमें जो मायी मिध्यादृष्टि उपपत्रक है वे महाकर्म वाले, महाकिया वाले, महाश्रय वाले और महावेदना वाले हैं तथा जो अमायी सम्यग्दृष्टि उपपन्नक हैं वे अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्पाश्रव और अल्पवेदना वाले हैं। साधना की दृष्टि से महाक्रिया, महाकर्म के त्याग का महत्व है। जैनदर्शन में एक यह मान्यता चल पड़ी है कि बद्ध पाप कर्मों का वेदन किए बिना मोक्ष नहीं होता। इसका समाधान आगम में किया गया है उसके अनुसार कर्म दो प्रकार के हैं- प्रदेश कर्म और अनुभाग कर्म। इनमें प्रदेश कर्म अवश्य भोगना पड़ता है। किन्तु अनुभाग कर्म का वेदन आवश्यक नहीं है। जीव किसी अनुभाग कर्म का वेदन करता है, किसी का नहीं। क्योंकि वह संक्रमण, स्थितिघात, रसघात आदि के द्वारा उन्हें परिवर्तित कर सकता है एवं निर्जरा भी कर सकता है।