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कर्म अध्ययन
अट्ठबंधमाणा पडिपुण्णाओ अट्ठकम्मपयडीओ बंधति। प. परम्परोववन्नगपज्जत्तग सुहम बायर पुढवि जाव
वणस्सइकाइयाणं भंते! कइ कम्मपयडीओ वेदेति? उ. गोयमा ! चोद्दस कम्मपयडीऔ वेदेति,तं जहा१.णाणावरणिज्जं जाव १४.पुरिसवेयवझं।
-विया. स.३४/१,उ.३,सु.३(१) ९८. सेसं अट्ठउद्देसगेसु कम्मपयडि सामित्तं बंध वेयण
परूवण यएवं सेसा विअट्ठ उद्देसगा जाव अचरिमो त्ति,
११५३ आठ बांधने पर सम्पूर्ण आठ कर्मप्रकृतियों का बंध करते हैं। प्र. भंते ! परंपरोपपन्नक पर्याप्त सूक्ष्म व बादर पृथ्वीकायिक
यावत् वनस्पतिकायिक कितनी कर्म प्रकृतियों का वेदन
करते हैं? उ. गौतम ! चौदह कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं, यथा
१.ज्ञानावरणीय यावत् १४. पुरुषवेदावरण।
णवरं-अणंतरावगाढ, अणंतराहारग, अणंतरपज्जत्तगा अणंतरोवनग सरिसा, परंपरोवगाढ, परंपराहारग, परंपरपज्जत्तगा परंपरोववन्नग सरिसा,
चरिमाय अचरिमा य एवं -विया. स.३४/१, उ. ४-११, सु.१ ९९. ठाणं-उववज्जणं पडुच्च सलेस्स एगिदिएसु कम्मपयडी सामित्तं
बंध वेयण परूवण यप. कण्हलेस्सअपज्जत्त-सुहुम बायर पुढविकाइयाणं जाव
पज्जत्तग बायर वणस्सइकाइयाणं भंते ! कइ
कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ? उ. गोयमा ! जहा ओहिओ उद्देसओ जाव तुल्लट्ठिईयत्ति।
-विया. स.३४/२, उ.१-११, सु.३ एवं नीललेस्सेहि वि सयं, काउलेस्से वि एवं चेव,
-विया. स.३४/३-५, उ.१-११, सु.१-२ प. कण्हलेस्स अणंतरोववन्नग सुहुम पुढविकाइयाणं भंते !
कइ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ? उ. गोयमा ! जहा एगिंदियसएस अणंतरोववन्नग उद्देसए
तहेव पण्णत्ताओ, तहेव बंधति, वेदेति जाव अणंतरोववन्नग बायर वणस्सइकाइया।
९८. शेष आठ उद्देशकों में कर्म प्रकृतियों का स्वामित्व, बंध और
वेदन का प्ररूपणइसी प्रकार अचरम उद्देशक पर्यन्त शेष आठ उद्देशकों में भी कहना चाहिए। विशेष-अणंतरावगाढ, अणंतराहारक, अणंतरपर्याप्तक अनंतरोपपन्नक के समान है। परम्परावगाढ, परंपराहारक, परंपरपर्याप्तक, परंपरोपपन्नक क समान है।
इसी प्रकार चरम और अचरम उद्देशक भी जानना चाहिए। ९९. स्थान और उत्पत्ति की अपेक्षा सलेश्य एकेन्द्रियों में कर्म
प्रकृतियों का स्वामित्व, बंध और वेदन का प्ररूपणप्र. भंते ! कृष्णलेश्यी अपर्याप्तक सूक्ष्म-बादर पृथ्वीकायिक
यावत् पर्याप्तक बादर वनस्पतिकायिकों के कितनी कर्म
प्रकृतियां कही गई हैं ? उ. गौतम ! जैसे औधिक उद्देशक में कहा है उसी प्रकार
तुल्यस्थिति पर्यन्त कहना चाहिए। इसी प्रकार नीललेश्यियों के लिए भी कहना चाहिए। इसी प्रकार कापोतलेश्यियों के लिए भी कहना चाहिए।
नीललेस्से विकाउलेस्से वि एवं चेव।
-विया. स.३४/६, उ.१-११, सु.२, प. परंपरोववन्नग कण्हलेस्स भवसिद्धीय अपज्जत्त सुहुम
बायर पूढविकाइया जाव बायर वणस्सइकाइयाणं भंते !
कइ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ? उ. गोयमा ! जहेव ओहिओ उद्देसओ जाव तुल्लट्ठिईय त्ति।
-विया.स.३४/६, उ.१-११,सु.५ एवं नीललेस्स एगिदिएसु एवं चेव। काऊलेस्स एगिदिएसु एवं चेव, एवं सेसावि अट्ठ उद्देसगा जाव अचरिमो ति।
प्र. भंते ! कृष्णलेश्यी अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों के
कितनी कर्मप्रकृतियां कही गई हैं ? उ. गौतम ! जैसे एकेन्द्रिय शतक के अनंतरोपपन्नक उद्देशक में
कहा उसी प्रकार अनन्तरोपपत्रक बादर वनस्पतिकायिक पर्यंत कहना चाहिए, उसी प्रकार बंध और वेदन भी कहना चाहिए। इसी प्रकार नीललेश्यियों और कापोतलेश्यियों के लिए भी
कहना चाहिए। प्र. भंते ! कृष्णलेश्यी परंपरोपपन्नक भवसिद्धिक अपर्याप्त सूक्ष्म
बादर पृथ्वीकायिकों यावत् बादर वनस्पतिकायिकों के कितनी
कर्म प्रकृतियां कही गई हैं? उ. गौतम ! जैसे औधिक उद्देशक में कहा है उसी प्रकार
तुल्यस्थिति पर्यन्त कहना चाहिए। इसी प्रकार नीललेश्यी एकेन्द्रियों के लिए भी कहना चाहिए। इसी प्रकार कापोतलेश्यी एकेन्द्रियों के लिए भी कहना चाहिए। इसी प्रकार अचरम उद्देशक पर्यन्त शेष आठ उद्देशकों में भी कहना चाहिए। इसी प्रकार अभवसिद्धिक की भी कर्मप्रकृतियां कहनी चाहिए। विशेष-चरम और अचरम को छोड़कर नव उद्देशक कहने चाहिए।
एवं अभवसिद्धिएहि वि णवर-चरिम-अचरिमवज्जा नव उद्देसगा भाणियव्या।
-विया. स.३४/७-१२, उ.१-११,सु.१-३