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एवं नीललेस्स अभवसिद्धीयएगिदिएहिं वि सयं भाणियव्वं।
-विया. स.३३/११, उ.१-९, सु.१ काउलेस्स अभवसिद्धीय एगिदिएहिं वि सयं एवं चेव।
-विया. स. ३३/१२, उ.१-९, सु.१ ९५. ठाणं पडुच्च एगिदिएसु कम्मपयडिसामित्तं बंध वेयण
परूवण यप. अपज्जत्त-सुहम-पुढविकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपयडीओ
पण्णत्ताओ? उ. गोयमा ! अट्ठ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ,तं जहा
१.नाणावरणिज्जंजाव ८.अंतराइयं। एवं चउक्कएणं भेएणं जहेव एगिदियसएसु जाव बायर-वणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं।
प. अपज्जत्त-सुहुम-पुढविकाइया णं भंते ! कइ कम्मपयडीओ
बंधति? उ. गोयमा ! सत्तविहबंधगा वि, अट्ठविहबंधगा वि,
जहा एगिंदियसएसुजाव पज्जत्त-बायर-वणस्सइकाइया।
प. अपज्जत्त-सुहुम-पुढविकाइया णं भंते ! कइ कम्मपयडीओ
वेदेति? उ. गोयमा ! चोद्दस कम्मपयडीओ वेदेति, नाणावरणिज्ज
जहा एगिदियसएसुजाव पुरिसवेयवझं।
द्रव्यानुयोग-(२) इसी प्रकार नीललेश्यी अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय शतक भी कहना चाहिए। इसी प्रकार कापोतलेश्यी अभवसिद्धिक एकेन्द्रिय शतक भी
कहना चाहिए। ९५. स्थान की अपेक्षा एकेन्द्रियों में कर्मप्रकृतियों का स्वामित्व बंध
और वेदन का प्ररूपणप्र. भंते ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के कितनी
कर्मप्रकृतियां कही गई हैं ? उ. गौतम ! आठ कर्म प्रकृतियां कही गई हैं, यथा
१. ज्ञानावरणीय यावत् ८. अन्तराय। इस प्रकार प्रत्येक के (सूक्ष्म बादर और इनके पर्याप्त अपर्याप्त) चार भेदों को एकेन्द्रिय शतक के अनसार पर्याप्त
बादर वनस्पतिकायिक पर्यन्त कहना चाहिए। प्र. भंते ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियों
का बंध करते हैं? उ. गौतम ! वे सात या आठ कर्मप्रकृतियों का बंध करते हैं।
जैसे एकेन्द्रियशतक में कहा उसी के अनुसार पर्याप्त बादर
वनस्पतिकायिक पर्यन्त कहना चाहिए। प्र. भंते ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव कितनी कर्मप्रकृतियों
का वेदन करते हैं? उ. गौतम ! चौदह कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं। एकेन्द्रिय
शतक के अनुसार वे ज्ञानावरणीय से पुरुषवेदावरण पर्यन्त कहना चाहिए। इसी प्रकार पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक पर्यन्त जानना
चाहिए। ९६. स्थान की अपेक्षा अनन्तरोपपन्नक एकेन्द्रियों में कर्मप्रकृतियों
का स्वामित्व बंध और वेदन का प्ररूपणप्र. भंते ! अनन्तरोपपन्नक सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों के कितनी
कर्मप्रकृतियां कही गई हैं ? उ. गौतम ! उनके आठ कर्मप्रकृतियां कही गई हैं,
इसी प्रकार जैसे एकेन्द्रिय शतक का अनन्तरोपपन्नक उद्देशक कहा उसी के अनुसार अनन्तरोपपन्नक बादर वनस्पतिकाय
पर्यन्त कर्मप्रकृतियां और उनका बंध एवं वेदन कहना चाहिए। ९७. स्थान की अपेक्षा परंपरोपपन्नक एकेन्द्रियों में कर्म प्रकृतियों
का स्वामित्व, बंध और वेदन का प्ररूपणप्र. भंते ! परंपरोपपन्नक पर्याप्तक सूक्ष्म व बादर पृथ्वीकायिक
यावत् वनस्पतिकायिक के कितनी कर्मप्रकृतियां कही गई हैं ? उ. गौतम ! आठ कर्मप्रकृतियां कही गई हैं, यथा. १. ज्ञानावरणीय यावत् ८. अंतराय। प्र. भंते ! परंपरोपपन्नक पर्याप्तक सूक्ष्म व बादर पृथ्वीकायिक
यावत् वनस्पतिकायिक कितनी कर्मप्रकृतियों का बंध
करते हैं? उ. गौतम ! वे सात या आठ कर्मप्रकृतियों का बंध करते हैं,
सात बांधने पर आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं।
एवं जाव बायर-वणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं।
-विया. स.३४/१,उ.१,सु.७०-७३ ९६. ठाणं पडुच्च-अणंतरोववन्नगएगिदिएसु कम्मपयडिसामित्तं
बंध-वेयण परूवणं यप. अणंतरोववन्नग-सुहम-पुढविकाइयाणं भंते ! कइ
कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ बंधंति वेदेति? उ. गोयमा ! अट्ठ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ।
एवं जहा एगिदियसएसु अणंतरोववन्नगउद्देसए तहेव पण्णत्ताओ बंधंति वेदेति जाव अणंतरोववन्नग
बायर-वणस्सइकाइया। -विया. स.३४/१, उ.२, सु.४, ९७. ठाणं पडुच्च परंपरोववन्नगएगिदिएसु कम्म पयडिसामित्तं
बंध-वेयण परूवण यप. परंपरोववन्नग पज्जत्तग सुहुम-बायर पुढवि जाव
वणस्सइकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपयडीओ पण्णत्ताओ? उ. गोयमा ! अट्ठकम्मपयडीओ पण्णत्ताओ,तं जहा
१.णाणावरणिज्जंजाव ८.अन्तराइयं। प. परंपरोववन्नग पज्जत्तग सुहुम-बायर-पुढवि जाव
वणस्सइकाइयाणं भंते ! कइ कम्मपयडीओ बंधति?
उ. गोयमा ! सत्तविहबंधगा वि, अट्ठविहबंधगा वि, सत्त
बंधमाणा आउय वज्जाओ सत्त कम्मपयडीओ बंधंति।