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१०८६ ८. धंसेइ जो अभूएणं अकम्मं अत्तकम्मुणा।
अदुवा तुमकासि त्ति महामोहं पकुव्वइ॥
९. जाणमाणो परिसओ सच्चामोसाणि भासइ।
अक्खीणझंझे पुरिसे महामोहं पकुव्वइ॥
१०. अणायगस्स नयवं दारे तस्सेवधंसिया।
विउलं विक्खोभइत्ताणं किच्चा णं पडिबाहिरं॥ उवगसंतं पि झपित्ता, पडिलोमाहिं वग्गूहिं। भोगभोगे वियारेइ महामोहं पकुव्वइ॥
११. अकुमारभूए जे केइ कुमारभूए त्ति हं वए।
इत्थीहिं गिद्धे वसए महामोहं पकुव्वइ ।।
१२. अबंभयारी जे केइ बंभयारि त्ति हं वए।
गद्दभे व्व गवं मज्झे विस्सरं नदइ नदं॥ अप्पणो अहिए बाले मायामोसं बहुं भसे। इत्थीविसयगेहीए महामोहं पकुव्वइ ।
द्रव्यानुयोग-(२) ८. जो व्यक्ति अपने दुराचरित कर्म का दूसरे निर्दोष व्यक्ति पर
आरोपण करता है, अथवा किसी एक व्यक्ति के दोष का किसी दूसरे व्यक्ति पर "तुमने यह कार्य किया" ऐसा आरोप लगाता
है, वह महामोहनीयकर्म का बंध करता है। ९. जो व्यक्ति यथार्थ को जानते हुए भी सभा के समक्ष मिश्र (सत्य
और मृषा) भाषा बोलता है और जो निरन्तर कलह करता
रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। १०. जो व्यक्ति अमात्य, अपने राजा की स्त्रियों अथवा धन आने
के द्वारों को विध्वंस (नष्ट) करके और सामन्तों आदि को विक्षुब्ध करके राजा को अनाधिकारी बनाकर राज्य, रानियों या राज्य के धन-आगमन के द्वारों पर अधिकार कर लेता है और जब अधिकारहीन वह राजा आवश्यकताओं के लिये सामने आता है तब विपरीत वचनों द्वारा उसकी भर्त्सना करता है। इस प्रकार से अपने स्वामी के विशिष्ट भोगों का
विनाश करने वाला वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। ११. जो व्यक्ति अकुमार (विवाहित) होते हुए भी अपने आप को
कुमार ब्रह्मचारी (बालब्रह्मचारी) कहता है और स्त्रियों में
आसक्त रहता है, वह महामोहनीय कर्म का बंध करता है। १२. जो व्यक्ति अब्रह्मचारी होते हुए भी अपने आपको ब्रह्मचारी
कहता है, वह गायों के समूह में गधे की भांति विस्वर नाद करता (रेंकता) है। वह अज्ञानी व्यक्ति अपनी आत्मा का अहित करता है और स्त्री विषयक आसक्ति के कारण मायामृषा वचन का प्रयोग करता है, वह महामोहनीयकर्म का बंध करता है। जो व्यक्ति राजा आदि के आश्रित होकर उनके संबंध से प्राप्त यश और सेवा का लाभ उठाकर जीविका चलाता है और फिर उन्हीं के धन में लुब्ध होता है, वह महामोहनीयकर्म का बंध
करता है। १४. किसी ऐश्वर्यशाली या ग्रामवासियों ने किसी निर्धन को
ऐश्वर्यशाली बनाया और उससे अतुल वैभव प्राप्त हुआ, तब ईर्ष्णदोष से आविष्ट तथा पाप से कलुषित चित्त वाला होकर उन्हीं के जीवन या सम्पदा में अन्तराय डालने का विचार
करता है, वह महामोहनीयकर्म का बंध करता है। १५. जैसे नागिन अपने अंड-पुट को खा जाती है, वैसे ही जो व्यक्ति
अपने पोषण करने वाले को तथा सेनापति और प्रशास्ता को
मार डालता है, वह महामोहनीयकर्म का बंध करता है। १६. जो व्यक्ति राष्ट्र के नायक, यशस्वी निगम-नेता और श्रेष्ठी को
मार डालता है, वह महामोहनीयकर्म का बंध करता है। १७. जो व्यक्ति जन नेता तथा प्राणियों के लिए द्वीप के समान
आधार है, ऐसे व्यक्ति को मार डालता है,वह महामोहनीयकर्म
का बंध करता है। १८. जो व्यक्ति प्रव्रज्या के लिए उपस्थित है, संयत और सुतपस्वी
हो गया है, उसको बहका कर धर्म से भ्रष्ट करता है, वह
महामोहनीयकर्म का बंध करता है। १९. जो व्यक्ति अनन्तज्ञानी और अनन्तदर्शी जिनेन्द्र भगवान् का
अवर्णवाद (निन्दा) करता है, वह बाल (मूर्ख) महामोहनीयकर्म का बंध करता है।
१३. जं निस्सिए उव्वहइ जस्साऽहिगमेण वा।
तस्स लुब्भइ वित्तम्मि महामोहं पकुव्वइ॥
१४. इस्सरेण अदुवा गामेणं अणिस्सरे इस्सरीकए।
तस्स संपग्गहीयस्स सिरी अतुलमागया। ईसादोसेण आइठे कलुसाविलचेयसे।
जे अंतरायं चेएइ महामोहं पकुव्वइ ।। १५. सप्पी जहा अंडउडं भत्तारंजो विहिंसइ।
सेणावइं पसत्थारं महामोहं पकुव्वइ॥
१६. जे नायगं व रट्ठस्स नेयारं निगमस्स वा।
सेटिंठ बहुरवं हंता महामोहं पकुव्वइ । १७. बहुजणस्स णेयारं दीवंताणं च पाणिणं।
एयारिसं नरं हंता महामोहं पकुव्वइ॥
१८. उवट्ठियं पडिविरयं संजयं सुतवस्सियं।
वोकम्म धम्मओ भंसे महामोहं पकुव्वइ ।
१९. तहेवाणतणाणीणं जिणाणं वरदसिणं।
तेसिं अवण्णिम बाले महामोहं पकुव्वइ॥