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७६. जीव चउवीसदंडएसुहस्सोसुयमाणेसु कम्मपयडि बंधो
प. छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से हसेज्ज वा उस्सुआएज्ज वा?
उ. हंता, गोयमा ! हसेज्ज वा, उस्सुआएज्ज वा। प. जहा णं भंते ! छउमत्थे मणुस्से हसेज्ज वा उस्सुआएज्ज
वा तहा णं केवली वि हसेज्ज वा, उस्सुयाएज्ज वा? उ. गोयमा ! नो इणढे समठे। प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ
"छउमत्थे मणुस्से हसेज्ज वा उस्सुआएज्जा वा नो णं तहा
केवली हसेज्ज वा, उस्सुआएज्ज वा?" उ. गोयमा ! जं णं जीवा चरित्तमोहणिज्जकम्मस्स उदएणं
हसंति वा, उस्सुआयंति वा, से णं केवलिस्स नत्थि,
से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ'छउमत्थे मणुस्से हसेज्ज वा उस्सुआएज्ज वा नो णं तहा
केवली हसेज्ज वा, उस्सुआएज्ज वा।' प. जीवे णं भंते ! हसमाणे वा उस्सुआमाणे वा कइ
कम्मपगडिओ बंधइ? उ. गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविबंधए वा।
दं.१-२४.एवं नेरइए जाव वेमाणिए।
द्रव्यानुयोग-(२) ७६. जीव-चौबीस दंडकों में हास्य और उत्सुकता वालों
के कर्मप्रकृतियों का बंधप्र. भंते ! क्या छद्मस्थ मनुष्य हंसता है तथा (किसी पदार्थ को ___ग्रहण करने के लिए) उत्सुक (उतावला) होता है ? उ. हां, गौतम ! छद्मस्थ मनुष्य हंसता है तथा उत्सुक होता है। प्र. भंते ! जैसे छद्मस्थ मनुष्य हंसता है तथा उत्सुक होता है, वैसे
ही क्या केवली मनुष्य भी हंसता और उत्सुक होता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"छमस्थ मनुष्य की तरह केवली मनुष्य न तो हंसता है और
न उत्सुक होता है?" उ. गौतम ! जीव चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से हंसते हैं और
उत्सुक होते हैं, किन्तु वह (चारित्रमोहनीय कर्म) केवली के नहीं है। (उनके तो वह क्षय हो चुका है।)
इस कारण से गौतम ! यह कहा जाता है कि_ 'छद्मस्थ मनुष्य हँसता है और उत्सुक होता है किन्तु केवली
न हंसता है और न उत्सुक होता है।' प्र. भंते ! हंसता हुआ या उत्सुक होता हुआ जीव कितनी कर्म
प्रकृतियों को बांधता है ? उ. गौतम ! वह सात या आठ प्रकार के कर्मों को बांधता है।
दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। बहुत जीवों की अपेक्षा जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर शेष
दंडकों में तीन भंग कहने चाहिए। ७७. जीव-चौबीस दंडकों में निद्रा और प्रचलावालों के कर्म
प्रकृतियों का बंधप्र. भंते ! क्या छद्मस्थ मनुष्य निद्रा लेता है या प्रचला नामक निद्रा
लेता है ? उ. हां, गौतम ! छद्मस्थ मनुष्य निद्रा भी लेता है और प्रचला निद्रा
भी लेता है। जिस प्रकार हंसने के विषय में कहा, उसी प्रकार यहाँ भी जान लेना चाहिए। विशेष-छद्मस्थ मनुष्य दर्शनावरणीय कर्म के उदय से निद्रा भी लेता है और प्रचला भी लेता है, वह (दर्शनावरणीय कर्म) केवली के नहीं होता है।
शेष सब पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। प्र. भंते ! निद्रा लेता हुआ या प्रचलानिद्रा लेता हुआ जीव कितनी
कर्म-प्रकृतियों का बंध करता है ? उ. गौतम ! वह सात प्रकृतियों का अथवा आठ प्रकृतियों का बन्ध
करता है। दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिक से वैमानिक-पर्यन्त कहना चाहिए। बहुत जीवों की अपेक्षा जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर शेष दंडकों में तीन भंग कहने चाहिए।
पोहत्तिएहिं जीवेगिंदयवज्जो तियभंगो।
-विया. स. ५, उ. ४, सु.५-९ ७७. जीव-चउवीस दंडएसु निद्दपयलायमाणेसु कम्म पयडिबंधो-
प. छउमत्थे णं भंते ! मणूसे निदाएज्ज वा पयलाएज्ज वा?
उ. हंता, गोयमा ! निदाएज्ज वा, पयलाएज्ज वा।
जहा हसेज्ज वा तहा भाणियव्या,
णवर-दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं निद्दायंति वा, पयलायति वा। से णं केवलिस्स नत्थि।
अन्नं तं चेव। प. जीवे णं भंते ! निद्दायमाणे वा, पयलायमाणे वा कइ
कम्मपगडीओ बंधइ? उ. गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविहबंधए वा।
दं.१-२४. एवं णेरइए जाव वेमाणिए।
पोहत्तिएसुजीवेगिंदियवज्जो तियभंगो।
-विया.स.५,उ.४,सु.१०-१४