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कर्म अध्ययन
१४. जीव-चउवीसदंडएसु सायासायवेयणियणिज्ज कम्म बंध
१०८९ १४. जीव चौवीस दंडकों में साता-असाता वेदनीय कर्म बंध के
हेतुप्र. (क) भंते ! क्या जीवों के सातावेदनीय कर्म बंधते हैं?
हेउ
प. (क) अत्थि णं भंते ! जीवाणं सातावेयणिज्जा कम्मा
कति? उ. हंता,गोयमा ! अत्थि। प. कह णं भंते !जीवाणं सातावेयणिज्जा कम्मा कज्जति? उ. गोयमा ! पाणाणुकंपाए, भूयाणुकंपाए, जीवाणुकंपाए,
सत्ताणुकंपाए, बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए, असोयणयाए, अजूरणयाए, अतिप्पणयाए, अपिट्टणयाए, अपरितावणयाए एवं खलु गोयमा ! जीवाणं सातावेयणिज्जा कम्मा कति। दं.१-२४. एवं नेरइयाण विजाव वेमाणियाणं।
उ. हाँ, गौतम ! बंधते हैं। प्र. भंते ! जीवों के सातावेदनीय कर्म कैसे बंधते हैं ? उ. गौतम ! प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्वों पर अनुकम्पा करने
से तथा बहुत से प्राणियों यावत् सत्वों को दुःख न देने से, उन्हें शोक (दैन्य) उत्पन्न न कराने से, चिन्ता उत्पन्न न कराने से, विलाप न कराने से, पीड़ा न देने से, परितापना न देने से। गौतम ! इस प्रकार से जीवों के सातावेदनीय कर्म बंधते हैं। १-२४. इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों पर्यन्त (साता
वेदनीय बंध विषयक) कथन करना चाहिए। प्र. (ख) भंते ! क्या जीवों के असातावेदनीय कर्म बंधते हैं ?
प. (ख) अस्थि णं भंते ! जीवाणं असातावेयणिज्जा कम्मा
कज्जति? उ. हता, गोयमा ! अत्थि। प. कह णं भंते ! जीवाणं असातावेयणिज्जा कम्मा कज्जति?
गोयमा ! परदुक्खणयाए, परसोयणयाए, परजूरणयाए, परतिप्पणयाए, परपिट्टणयाए, परपरितावणयाए, बहूणं पाणाणं जाव सत्ताणं दुक्खणयाए, सोयणयाए जाव परितावणयाए।
उ. हाँ, गौतम ! बंधते हैं। प्र. भंते ! जीवों के असातावेदनीय कर्म कैसे बंधते हैं? उ. गौतम ! दूसरों को दुःख देने से, दूसरे जीवों को शोक उत्पन्न
कराने से, चिन्ता उत्पन्न कराने से, विलाप कराने से, पीड़ा देने से, परितापना देने से तथा बहुत से प्राणियों यावत् सत्वों को दुःख पहुँचाने से, शोक उत्पन्न कराने से यावत् उनको परितापना देने से। गौतम ! इस प्रकार जीवों के असातावेदनीय कर्म बंधते हैं।
एवं खलु गोयमा ! जीवाणं असातावेयणिज्जा कम्मा कज्जंति। दं.१-२४. एवं नेरइयाण वि जाव वेमाणियाणं।
-विया. स.७, उ.६, सु. २३-३० १५. दुल्लभ-सुलभबोहि य कम्म बंध हेउ परूवणं(क) 'पंचहिं ठाणेहिं जीवा दुल्लभबोहियत्ताए कम्म पकरेंति,
तं जहा१. अरंहताणं अवण्णं वयमाणे, २. अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स अवण्णं वयमाणे, ३. आयरियउवज्झयाणं अवण्णं वयमाणे, ४. चाउवण्णस्स संघस्स अवण्णं वयमाणे, ५. विविक्क-तव बंभचेराणं देवाणं अवण्णं वयमाणे,
दं. १-२४. इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों पर्यन्त
(असातावेदनीय बन्ध विषयक) कथन करना चाहिए। १५. दुर्लभ-सुलभबोधि वाले कर्म बंध के हेतु का प्ररूपण
(क) पाँच स्थानों से जीव दुर्लभबोधि वाले कर्मों का बंध करते हैं,
यथा
(ख) पंचहिं ठाणेहिं जीवा सुलभबोहियत्ताए कम पकरेंति,
तं जहा१. अरहंताणं वण्णं वयमाणे, २. अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स वण्णं वयमाणे, ३. आयरियउवज्झायाणं वण्णं वयमाणे, ४. चाउवण्णस्स संघस्स वण्णं वयमाणे, ५. विविक्क-तव बंभचेराणं देवाणं वणं वयमाणे।
-ठाणं अ.५,उ.२,सु.४२६
१. अर्हन्तों का अवर्णवाद (दोषारोपण) करने से, २. अर्हत्-प्रज्ञप्त धर्म का अवर्णवाद करने से, ३. आचार्य-उपाध्याय का अवर्णवाद करने से, ४. चतुर्विध संघ का अवर्णवाद करने से, ५. तप और ब्रह्मचर्य के विपाक से दिव्य-गति को प्राप्त देवों
का अवर्णवाद करने से। (ख) पाँच स्थानों से जीव सुलभबोधि वाले कर्मों का बंध करते हैं,
यथा१. अर्हन्तों का वर्णवाद (प्रशंसा) करने से, २. अर्हत्-प्रज्ञप्त धर्म का वर्णवाद करने से, ३. आचार्य-उपाध्याय का वर्णवाद करने से, ४. चतुर्विध संघ का वर्णवाद करने से, ५. तप और ब्रह्मचर्य के विपाक से दिव्य-गति को प्राप्त देवों
का वर्णवाद करने से।