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कर्म अध्ययन
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२०. नेयाउयस्स मग्गस्स दुढे अवयरई बहु।
तं तिप्पयंतो भावेइ महामोहं पकुव्वइ॥
२१. आयरियउवज्झाएहिं सुयं विणयं च गाहिए।
ते चेव खिंसती बाले महामोहं पकुव्वइ॥
२२. आयरियउवज्झायाणं सम्मं नो पडितप्पइ।
अप्पडिपूयए थद्धे महामोहं पकुव्वइ ।
२३. अबहुस्सुए य जे केइ सुएण पविकत्थइ।
सज्झायवायं वयइ महामोहं पकुव्वइ ।।
२४. अतवस्सिए यजे केइ तवेण पविकत्थइ।
सव्वलोयपरे तेणे महामोहं पकुव्वइ॥
२५. साहारणट्ठा जे केइ गिलाणम्मि उवट्ठिए।
पभूण कुणई किच्चं मझं पि से न कुव्वइ ।। सढे नियडिपण्णाणे कलुसाउलचेयसे।
अप्पणो य अबोहीए महामोहं पकुव्वइ । २६. जे कहाहिगरणाई संपउंजे पुणो पुणो।
सव्वतित्थाणं भेयाणं महामोहं पकुव्वइ॥
२०. जो दुष्ट व्यक्ति न्याय युक्त मोक्षमार्ग की निन्दा करता है, बहुत
जनों को उस पर चलने से रोकता है और उन दुष्ट विचारों से
लिप्त करता है, वह महामोहनीयकर्म का बंध करता है। २१. जिन आचार्य और उपाध्यायों से श्रुत और विनय धर्म की
शिक्षा ग्रहण की है, उन्हीं की निन्दा करने वाला अज्ञानी
महामोहनीयकर्म का बंध करता है। २२. जो व्यक्ति आचार्य और उपाध्यायों की सम्यक् प्रकार से सेवा
सुश्रुषा नहीं करता है उनका सम्मान नहीं करता है किन्तु
अभिमान करता है, वह महामोहनीयकर्म का बंध करता है। २३. जो व्यक्ति अबहुश्रुत होते हुए भी अपने को श्रुत सम्पन्न
और स्वाध्याय शील कहता है, वह महामोहनीयकर्म का बंध
करता है। २४. जो व्यक्ति तपस्वी न होते हुए भी अपने आपको तपस्वी कहता
है, वह सबसे बड़ा चोर है, ऐसा व्यक्ति महामोहनीयकर्म का
बंध करता है। २५. जो कोई सहायता के लिए रोगी के उपस्थित होने पर समर्थ
होते हुए भी यह मेरी सेवा नहीं करता है इस दृष्टि से उसकी सेवा नहीं करता है, ऐसा वह धूर्त मायावी कलुषित चित्तवाला व्यक्ति अबोधि (रत्नत्रय की अप्राप्ति) का कारण बनता हुआ
महामोहनीय कर्म का बंध करता है। २६. जो व्यक्ति सर्व तीर्थों (धर्मों) में भेद के लिए कथा और
अधिकरण (हिंसक साधनों) का बार-बार संप्रयोग करता है,
वह महामोहनीयकर्म का बंध करता है। २७. जो व्यक्ति अपनी प्रशंसा और मित्रों के लिए अधार्मिक योगों
(मंत्र तंत्र वशीकरण आदि) का बार-बार संप्रयोग करता है,
वह महामोहनीयकर्म का बंध करता है। . २८. जो व्यक्ति मानवीय एवं परलोक संबंधी भोगों का अतप्तभाव
से आस्वादन करता है, वह महामोहनीयकर्म का बंध
करता है। २९. जो व्यक्ति देवों की ऋद्धि, द्युति, यश, वर्ण और बल-वीर्य का
अवर्णवाद करता है वह अज्ञानी महामोहनीयकर्म का बंध
करता है। ३०. जो जिन की भांति अपनी पूजा का अभिलाषी होकर देव, यक्ष
और गुह्यक (व्यन्तर देव) को नहीं देखता हुआ भी कहता है कि मैं उन्हें देखता हूँ, वह अज्ञानी महामोहनीयकर्म का बंध
करता है। १२. जीव और चौवीसदंडकों में आठ कर्म प्रकृतियों का किस
प्रकार बंध होता हैप्र. भंते ! जीव आठ कर्मप्रकृतियों को किस प्रकार बांधता है ? उ. गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से (जीव) दर्शनावरणीय
कर्म को निश्चय ही प्राप्त करता है, दर्शनावरणीय कर्म के उदय से (जीव) दर्शनमोहनीय कर्म को निश्चय ही प्राप्त करता है।
२७. जे य आहम्मिए जोए संपउंजे पुणो पुणो।
साहाहेउं सहीहेउं महामोहं पकुव्वइ॥
२८. जे य माणुस्सए भोए अदुवा पारलोइए।
तेऽतिप्पयंतो आसयइ महामोहं पकुव्वइ ।
२९. इड्ढी जुई जसो वण्णो देवाणं बलवीरियं।
तेसिं अवण्णिमं बाले महामोहं पकुव्वइ ।।
३०. अपस्समाणो पस्सामि देवे जक्खे य गुज्झगे।
अण्णाणी जिणपूयट्ठी महामोहं पकुव्वइ॥
-दसा.द.९
१२. जीव-चउवीसदंडएसुकम्म पगडीणं कहण्णं बंधं भवइ
प. कहण्णं भंते ! जीवे अट्ठ कम्मपगडीओ बंधइ? उ. गोयमा ! नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं
दरिसणावरणिज्जं कम्मं णियच्छइ, दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दंसणमोहणिज्जं कम्मं णियच्छइ,
१. सम, सम. ३०,सु.१