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कर्म अध्ययन
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हैं- देश ज्ञानावरणीय और सर्वज्ञानावरणीय । ज्ञान को अंशतः आवृत करने वाला कर्म देश ज्ञानावरणीय है तथा मतिज्ञान आदि सभी को आवृत्त करने वाला सर्वज्ञानावरणीय है। इसी प्रकार दर्शनावरणीय के देश दर्शनावरणीय एवं सर्वदर्शनावरणीय ये दो भेद किये जाते हैं। वेदनीय कर्म के साता और असाता ये दो भेद प्रसिद्ध हैं किन्तु सातावेदनीय ८ प्रकार का कहा गया है- १. मनोज्ञ शब्द, २. मनोज्ञ रूप, ३. मनोज्ञ गंध, ४. मनोज्ञ रस, ५. मनोज्ञ स्पर्श, ६. मन का सौख्य, ७. वचन का सौख्य और ८. काया का सौख्य। इनके विपरीत अमनोज्ञ शब्दादि के रूप में ८ प्रकार का असातावेदनीय कर्म होता है। आयु कर्म के दो विशिष्ट भेद हैं- अद्धायु और भवायु। अद्धायु भवान्तरगामिनी होती है, जबकि भवायु मात्र उसी भव के लिए होती है। नामकर्म के २ भेद हैं- १. शुभ नाम और २. अशुभ नाम । गोत्र कर्म में उच्चगोत्र ८ प्रकार का है- १. जाति, २. कुल, ३. बल, ४. रूप, ५. तप, ६. श्रुत, ७. लाभ और ८. ऐश्वर्य में विशिष्टता का होना। जब इनमें हीनता होती है तो ८ प्रकार का नीच गोत्र होता है। अन्तरायकर्म के दो प्रकार हैं- १. वर्तमान में प्राप्तवस्तु का वियोग करने वाला २. भविष्य में होने वाले लाभ के मार्ग को रोकने वाला।
श्रमण एवं श्रमणी के २२ परीषह होते हैं। उन्हें ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार कर्मप्रकृतियों में सम्मिलित किया जा सकता है। ज्ञानावरणीय कर्म में 9. प्रज्ञापरीषह और २. ज्ञान ( अज्ञान) परीषह का समवतार होता है। वेदनीय कर्म में 99 परीषहों का समवतार होता है१. क्षुधा, २. पिपासा, ३. शीत, ४. उष्ण, ५. दंशमशक, ६. चर्या, ७. शय्या, ८. वध, ९. रोग, 90. तृणस्पर्श और 99. जल्ल (मल) परीषह । दर्शनमोहनीय कर्म में एक दर्शन परीषद सम्मिलित होता है जबकि चारित्रमोहनीय कर्म में सात परीषह शामिल होते हैं-१. अरति २. अचेल, ३. स्त्री, ४. निषद्या, ५. याचना, ६. आक्रोश और ७. सत्कार परीषह । अन्तराय कर्म में एक अलाभ परीषह का समवतार होता है।
आठ कर्मों का बंध करने वाले एवं आयु को छोड़कर सात कर्मों का बंध करने वाले जीव के २२ परीषह कहे गए हैं किन्तु वह जीव एक साथ २० परीषहों का वेदन करता है उससे अधिक नहीं क्योंकि जीव शीत और उष्ण परीषहों में से एक को वेदता है। इसी प्रकार चर्या और निषद्या परीषहों में से एक समय में एक का वेदन होता है। छह प्रकार के कर्म बांधने वाले सराग छद्मस्थ जीव के चौदह परीषह कहे गए हैं किन्तु वह एक साथ बारह परीषह वेदता है। एकविध कर्म का बन्ध करने वाले वीतराग छद्मस्थ के भी १४ परीषह कहे गए हैं। एकविध बंधक सयोगी भवस्थ केवली के ११ परीषह कहे गए हैं। वीतराग छद्मस्थ एवं केवली के चर्या और शय्या परीषह का एक साथ वेदन नहीं होता है।
जीव जिन कर्म पुद्गलों का पाप कर्म के रूप में चय करता है, उपचय करता है, बंध करता है, उदीरण करता है, वेदन करता है, निर्जरण करता है वे कर्म पुद्गल द्विस्थान से लेकर दसस्थान निर्वर्तित होते हैं। विविध अपेक्षाओं से इन स्थानों का प्रतिपादन किया गया है। द्विस्थान निर्वर्तित पुगलों में असकाय निर्वर्तित और स्थावर काय निर्वर्तित पुदगलों का उल्लेख है। त्रिस्थान में स्त्रीनिर्वर्तित, पुरुष निर्वर्तित और नपुंसक निर्वर्तित का, चार स्थानों में नैरयिक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य और देव निर्वर्तित का, पांच स्थानों में एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय निर्वर्तित का, छह स्थानों में पृथ्वीकायिकादि षट् काय निर्वर्तित पुद्गलों का उल्लेख है। सात स्थानों में नैरयिक, तिर्यक् तिर्यक्स्त्री, मनुष्य, मनुष्यस्त्री, देव और देवी निर्वर्तित पुद्गलों का उल्लेख है। आठ स्थानों में प्रथम समय नैरयिक निर्वर्तित, अप्रथमसमय मनुष्य निर्वर्तित, प्रथम समय तिर्यक् निर्वर्तित, अप्रथमसमय तिर्यक् निर्वर्तित, प्रथम समय मनुष्य निर्वर्तित, अप्रथम समय नैरयिक निर्वर्तित, प्रथमसमय देव निर्वर्तित, अप्रथम समय देवनिर्वर्तित पुद्गलों को और नौ स्थानों में पांच स्थावर काय एवं द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय निर्वर्तित पुद्गलों को सम्मिलित किया गया है। दस स्थानों में एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक को प्रथम एवं अप्रथम समय के आधार पर दस भागों में विभक्त कर उनसे निर्वर्तित पुद्गलों का कथन है।
पाप कर्मों का उदीरण ( अवधि के पूर्व उदय में लाना) भी होता है, वेदन (उदय) भी होता है और निर्जरण भी होता है। इन तीनों के होने के मोटे तौर पर दो स्थान हैं - १. आभ्युपगमिकी (स्वीकृत तपस्या आदि की) वेदना, २. औपक्रमिकी (रोग आदि की) वेदना । पाप कर्म का करना दुःख रूप होता है जबकि उसकी निर्जरा सुख रूप होती है। जीवों के पाप कर्मों में भिन्नता है। जैसे छोड़े गये एक बाण के कम्पन में भिन्नता होती है उसी प्रकार पाप कर्मों में भी भिन्नता पायी जाती है।
प्रस्तुत अध्ययन में ग्यारह द्वारों से जीव के पाप कर्मों के बंध का विशद निरूपण है। ग्यारह द्वार हैं- १. जीव, २. लेश्या, ३. पाक्षिक (शुक्ल और कृष्ण), ४. दृष्टि, ५. अज्ञान, ६. ज्ञान, ७. संज्ञा, ८. वेद, ९. कषाय, १०. उपयोग और, ११. योग। जीव द्वार में चार भंगों के रूप में पापकर्म बंध का निरूपण है, यथा-(१) किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, बाँधता है और बाँयेगा, (२) किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, बाँधता है और नहीं बांधेगा, (३) किसी जीव ने पापकर्म बाँधा था, नहीं बांधता है और बांधेगा, (४) किसी जीव ने पापकर्म बांधा था, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा। इसी प्रकार के चार भंगों के आधार पर लेश्या आदि शेष दस द्वारों का चौबीस दण्डकों में विस्तृत वर्णन किया गया है। वर्णन में अनन्तरोपपन्नक, परम्परोपपन्नक आदि पारिभाषिक शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। अनन्तर का अर्थ होता है व्यवधान रहित समय। जिस समय में जीव उत्पन्न (जन्म) हुआ है वह समय अनन्तरोपपन्नक समय है। इसके पश्चात् सभी समय परम्परोपन्नक हैं। इसी प्रकार अनन्तराहारक परम्पराहारक, अनन्तर पर्याप्तक परम्पर पर्याप्तक आदि शब्दों का आशय ग्रहण करना चाहिए। चरिम एवं अचरिम शब्द अंतिम भव तथा अनन्तिम भव के द्योतक हैं।
जीव, लेश्या आदि ग्यारह द्वारों से चौबीस दण्डकों में आठ कर्मों के बंध का निरूपण करना आगम ग्रंथों की सूक्ष्मता एवं गहनता का संकेत करता है। ऐसे तथ्य थोकडों (स्तोकों) में भी संग्रहीत हैं। जिन्हें विद्याव्यसनी संत कण्ठस्थ रखते हैं। इनका संकलन प्रस्तुत अध्ययन में विस्तृत रूप में है! पाप कर्म करने या न करने के सम्बन्ध में चार भंग हैं यथा- १. किसी जीव ने पापकर्म किया था, करता है और करेगा, २. किसी जीव ने पापकर्म किया था, करता है और नहीं करेगा, ३. किसी जीव ने पापकर्म किया था, नहीं करता है और करेगा, ४. किसी जीव ने पापकर्म किया था, नहीं करता है