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३१. कर्म-अध्ययन : आमुख
जैनागमों में कर्म सिद्धान्त का सूक्ष्म विवेचन विद्यमान है। कम्म-पयडि एवं कर्म ग्रंथों का निर्माण भी आगमों के आधार पर हुआ है, जिनमें कर्म-सिद्धान्त का व्यवस्थित निरूपण उपलब्ध होता है। आगम की शैली शंका-समाधान की शैली है, संवाद की शैली है जिसमें अनेक सूक्ष्म तथ्य सरल रूप में समाहित हुए हैं। दिगम्बर ग्रंथ षट्खण्डागम एवं कषाय पाहुड में भी कर्म का विशद विवेचन है।
प्रस्तुत कर्म अध्ययन में कर्म का संक्षेप में सर्वांगीण निरूपण है। यद्यपि कर्म-ग्रंथों में जो व्यवस्थित प्रतिपादन मिलता है वह आगमों में बिखरा हुआ है। थोकड़ों (स्तोकों) के रूप में अवश्य व्यवस्थित हुआ है। आगमों में कर्म के विविध पक्षों पर चर्चा है जो कर्म-ग्रंथों में प्रायः नहीं मिलती है इसलिए आगमों में निरूपित कर्म-विवेचन का विशेष महत्व है।
मिथ्यात्व, अविरति आदि हेतुओं से जीव के द्वारा जो किया जाता है उसे कर्म कहते हैं। कार्मण वर्गणाएं जब जीव के साथ बंध को प्राप्त हो जाती हैं तो वे भी कर्म कही जाती हैं। जीव एवं कर्म का अनादि सम्बन्ध है किन्तु उसका अंत किया जा सकता है। जीव के संसार परिभ्रमण का अंत कर्मों का नाश अथवा क्षय होने पर ही संभव है। कर्मों के आठ भेद जैन दर्शन में प्रसिद्ध हैं-१. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. नाम,७. गोत्र और ८. अन्तराय। किन्तु आगम में कर्म के दो एवं चार भेद भी किए गए हैं। दो भेदों में (१) प्रदेशकर्म और (२) अनुभाव कर्म का उल्लेख है तो चार भेदों में (१) प्रकृति कर्म, (२) स्थिति कर्म, (३) अनुभाव कर्म और (४) प्रदेशकर्म की गणना है। बद्ध कर्मों के स्वभाव को प्रकृति कर्म, उनके ठहरने की कालावधि को स्थिति कर्म, फलदान शक्ति को अनुभाव कर्म तथा कर्म परमाणु पुद्गलों के संचय को प्रदेश कर्म कहते हैं। कर्म के चार भेद उनके अनुबन्ध के आधार पर भी किए जाते हैं शुभानुबंधी शुभ, अशुभानुबंधी शुभ, शुभानुबंधी अशुभ और अशुभानुबंधी अशुभ। इन्हीं भेदों के आधार पर पुण्यानुबंधी पुण्यादि भेदों का प्रचलन हो गया है। फल के आधार पर भी कर्मों के चार भेद हैं- १. शुभ विपाकी शुभ, २. अशुभ विपाकी शुभ, ३. शुभ विपाकी अशुभ तथा ४. अशुभ विपाकी अशुभ।
कर्म अगुरुलघु होते हैं तथापि कर्म से जीव विविध रूपों में परिणत होते हैं। उनका फल भोगते हैं।
ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म-प्रकृतियों में परस्पर सहभाव है। जहाँ ज्ञानावरणीय कर्म है वहाँ मोहनीय के अतिरिक्त छहों कर्म नियम से हैं। मोहनीय कर्म स्यात् है, स्यात् नहीं है क्योकि दसवें गुणस्थान तक तो ज्ञानावरण के साथ मोहनीय रहता ही है किन्तु ग्यारहवें गुणस्थान से मोहनीय नहीं रहता जब कि ज्ञानावरणीय कर्म का उदय रहता है। इसी प्रकार दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्मों के साथ भी मोहनीय के अतिरिक्त छहों कर्म नियम से रहते हैं किन्तु मोहनीय स्यात् रहता है स्यात् नहीं। जहाँ मोहनीय कर्म है वहाँ अन्य सातों कर्म नियम से हैं। वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र के होने पर ज्ञानावरणादि घाती कर्म स्यात् होते हैं, स्यात् नहीं; किन्तु वेदनीय के होने पर आयु, नाम और गोत्र का नियम से सहभाव है। इसी प्रकार अन्य अघाती कर्म भी नियमतः साथ रहते हैं।
आठों कर्मों का बंध नैरयिक से लेकर वैमानिक तक चौबीस ही दण्डकों में पाया जाता है। मनुष्य अवश्य इन कर्मों के बंध से रहित हो सकता है। ज्ञानावरणीय कर्म के होने पर दर्शनावरणीय तथा दर्शनावरणीय के होने पर दर्शनमोह कर्म निश्चय ही रहता है। दर्शनमोहनीय का एक भेद मिथ्यात्वमोहनीय है। मिथ्यात्व का उदय होने पर जीव आठ या सात कर्म प्रकृतियों का बंध करता है जबकि सम्यक्त्व के होने पर जीव आठ, सात, छह या एक कर्म का बंध करता है।
हमारे अनुभव में वेदनीय कर्म एक मुख्य कर्म है। वह कर्कश वेदनीय और अकर्कशवेदनीय के रूप में भगवती सूत्र में निरूपित है। प्राणातिपात से मिथ्यादर्शनशल्य तक १८ पापों का आचरण करने वाला जीव कर्कशवेदनीय कर्म बांधता है तथा इनसे विरत होने वाला अकर्कशवेदनीय कर्म बांधता है। मोहनीय कर्म को आठों कर्मों का राजा कहा जाता है। समवायांग सूत्र में मोहनीय के बावन नामों का उल्लेख किया गया है तथा दशाश्रुतस्कंध सूत्र में महामोहनीय कर्म के ३० बंधस्थानों का वर्णन है।
कर्म चैतन्यकृत होते हैं, अचैतन्यकृत नहीं। जीव ही आठ कर्म प्रकृतियों का चय करते हैं, उपचय करते हैं, बंध करते हैं, उदीरण वेदन और निर्जरण करते हैं। इस दृष्टि से कर्म के दो प्रकार होते हैं-चलित और अचलित। इनमें निर्जरा चलित कर्म की होती है तथा बंध, उदीरण, वेदन, अपवर्तन, संक्रमण, निधूतन और निकाचन अचलित कर्म के होते हैं। जीव आठ प्रकृतियों का चय, उपचय, बंध, उदीरण, वेदन और निर्जरण चार कारणों से करता है-१. क्रोध से, २. मान से, ३. माया से और ४. लोभ से।
ज्ञानावरणादि आठ कर्मों की ९७ उत्तरप्रकृतियाँ हैं। किसी अपेक्षा से १२२, १४८ और १५८ उत्तरप्रकृतियां भी गिनी जाती हैं। इनमें मुख्यतः नाम कर्म की उत्तरप्रकृतियों की संख्या में अन्तर आता है, अन्य में नहीं। नाम कर्म की यहाँ ४२ उत्तरप्रकृतियां गिनी गई हैं, कर्मग्रंथों में इसकी ६७, ९३ या १०३ उत्तरप्रकृतियां भी गिनी जाती हैं। यहाँ ९७ भेदों में ज्ञानावरण के ५, दर्शनावरण के ९, वेदनीय के २, मोहनीय के २८, आयु के ४, नाम के ४२, गोत्र के २ और अन्तराय के ५ भेद समाविष्ट हैं। वैसे कर्म प्रकृतियों के भिन्न प्रकार से भी भेद प्रतिपादित हैं। यथा-ज्ञानावरणीय के २ प्रकार
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