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से तेणढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइपंचविहा परियारणा पण्णत्ता,तं जहा१."कायपरियारणा जाव ५.मणपरियारणा।" तत्थ णं जे ते कायपरियारगा देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पज्जइ इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धिं कायपरियारणं करेत्तए। तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे खिप्पामेव ताओ अच्छराओ ओरालाई सिंगाराई मणुण्णाई मणोहराई मणोरमाई उत्तरवेउब्वियाई रूवाई विउव्वंति। विउव्वित्ता तेसिं देवाणं अंतियं पाउब्भवंति। तए णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं कायपरियारणं करेंति। से जहाणामए सीया पोग्गला सीयं पप्प सीयं चेव अइवइत्ताणं चिट्ठति। उसिणा वा पोग्गला उसिणं पप्प उसिणं चेव अइवइत्ता णं चिट्ठति। एवामेव तेहिं देवेहिं ताहिं अच्छराहिं सद्धिं कायपरियारणे
कए समाणे से इच्छामणे खिप्पामेवावेइ। प. अस्थि णं भंते ! तेसिंदेवाणं सुक्कपोग्गला? उ. हंता गोयमा ! अत्थि। प. ते णं भंते ! तासिं अच्छराणं कीसत्ताए भुज्जो-भुज्जो
परिणमंति? उ. गोयमा ! सोइंदियत्ताए चक्विंदियत्ताए घाणिंदियत्ताए
रसिंदियत्ताए फासिंदियत्ताए। इट्ठत्ताए कंतत्ताए मणुण्णत्ताए मणामत्ताए। सुभगत्ताए सोहग्ग-रूव-जोव्वण-गुणलावण्णत्ताए ते तासिं भुज्जो-भुज्जो परिणमंति। तत्थ णं जे ते फासपरियारगा देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पज्जइ। एवं जहेव कायपरियारणा तहेव निरवसेसं भाणियव्वं ।
द्रव्यानुयोग-(२) गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि'परिचारणा पांच प्रकार की कही गई है, यथा१.कायपरिचारणा यावत् ५.मनःपरिचारणा।' उनमें से कायपरिचारक (शरीर से विषयभोग सेवन करने वाले) जो देव हैं, उनके मन में (ऐसी) इच्छा समुत्पन्न होती है कि हम अप्सराओं के शरीर से परिचार (मैथुन) करें। उन देवों द्वारा इस प्रकार मन से सोचने पर वे अप्सराएं उदार आभूषणादियुक्त (शृंगारयुक्त), मनोज्ञ, मनोहर एवं मनोरम उत्तरवैक्रिय रूप की विकुर्वणा करती हैं। इस प्रकार विकुर्वणा करके वे उन देवों के पास आती हैं। तब वे देव उन अप्सराओं के साथ कायपरिचारणा (शरीर से मैथुन सेवन) करते हैं। जैसे शीत पुद्गल शीतयोनि वाले प्राणी को प्राप्त होकर अत्यन्त शीतअवस्था को प्राप्त करके रहते हैं, अथवा उष्ण पुद्गल जैसे उष्णयोनि वाले प्राणी को पाकर अत्यन्त उष्ण अवस्था को प्राप्त करके रहते हैं. उसी प्रकार उन देवों द्वारा अप्सराओं के साथ काया से
परिचारणा करने पर उनकी इच्छा पूर्ण हो जाती है। प्र. भन्ते ! क्या उन देवों के शुक्र-पुद्गल होते हैं ? उ. हाँ गौतम ! होते हैं। प्र. भन्ते ! उन अप्सराओं के लिए वे किस रूप में बार-बार
परिणत होते हैं ? उ. गौतम ! श्रोत्रेन्द्रियरूप से, चक्षुरिन्द्रियरूप से, घ्राणेन्द्रियरूप से,
रसेन्द्रियरूप से, स्पर्शेन्द्रियरूप से, इष्टरूप से, कमनीयरूप से, मनोज्ञरूप से, अतिशय मनोज्ञरूप से, सुभगरूप से, सौभाग्य-रूप - यौवन : गुण - लावण्यरूप से वे उनके लिए बार-बार परिणत होते हैं। उनमें जो स्पर्शपरिचारकदेव हैं, उनके मन में भी इच्छा उत्पन्न होती है, जिस प्रकार काया से परिचारणा करने वाले देवों का कथन किया गया है उसी प्रकार सम्पूर्ण कहना चाहिए। उनमें जो रूपपरिचारक देव हैं, उनके मन में इच्छा समुत्पन्न होती है कि हम अप्सराओं के साथ रूपपरिचारणा करें।
तत्थ णं जे ते रूवपरियारगा देवा तेसिं णं इच्छामणे समुप्पज्जइ। इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धि रूवपरियारणं करेत्तए। तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे तहेव जाव उत्तरवेउव्वियाई रूवाई विउव्वंति।
विउव्वित्ता जेणामेव ते देवा तेणामेव उवागच्छंति, तेणामेव उवागच्छित्ता तेसिं देवाणं अदूरसामते ठिच्चा ताई ओरालाई जाव मणोरमाइं उत्तरवेउव्वियाई रूवाई उवदंसेमाणीओ उवदंसेमाणीओ चिट्ठति। तए णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं रूवपरियारणं करेंति। एवं जहेव कायपरियारणा तहेव निरवसेसंभाणियव्वं ।
उन देवों द्वारा मन से ऐसा विचार किए जाने पर (वे देवियां) उसी प्रकार (पूर्ववत्) यावत् उत्तरवैक्रिय रूप से विक्रिया करती हैं। विक्रिया करके जहां वे देव होते हैं वहां जा पहुँचती हैं और फिर उन देवों के न बहुत दूर और न बहुत पास स्थित होकर उन उदार यावत् मनोरम उत्तरवैक्रिय-कृत रूपों को दिखलाती-दिखलाती खड़ी रहती हैं। तत्पश्चात् वे देव उन अप्सराओं के साथ रूपपरिचारणा करते हैं। शेष सारा कथन काय परिचारणा के अनुरूप यहाँ कहना चाहिए।