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आश्रव अध्ययन
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५२. अबंभस्स उवसंहारो
एयं तं अबंभं पि चउत्थे सदेव-मणुयासुरस्स लोगस्स पत्थणिज्जं। एवं चिरपरिचियमणुगयं दुरंत।
चउत्थं अहम्मदारं समत्तं,त्ति बेमि। -पण्ह.आ.४, सु. ९२ (ख)
५३. मेहुण सेवणाए असंजमस्सोदाहरण परूवणं
प. मेहुणं भन्ते ! सेवमाणस्स केरिसए असंजमे कज्जइ ?
उ. गोयमा ! से जहानामए पुरिसे रूवनालियं वा, बूरनालियं
वा, तत्तेणं कणएण समभिधंसेज्जा-एरिसए णं गोयमा ! मेहुणं सेवमाणस्स असंजमे कज्जइ।
-विया.स.२,उ.५, सु.९ ५४. परिग्गह सरूवं
जंबू ! इत्तो परिग्गहो पंचमो, उ नियमा णाणामणि कणग-रयण महरिहपरिमल,
सपुत्तदार-परिजण-दासी-दास-भयग-पेस, हय-गय-गो-महिस-उट्ट-खर-अय-गवेलग, सीया-सगड-रह-जाण-जुग्ग-संदण-सयणासण-वाहण, कुविय-धण-धन्न-पाणभोयणाच्छायण,
५२. अब्रह्म का उपंसहार
यह चौथा आश्रव अब्रह्म भी देवता, मनुष्य और असुर सहित समस्त लोक के प्राणियों द्वारा प्रार्थनीय अभीप्सित है। यह चिरकाल से परिचित अभ्यस्त, अनुगत और दुरन्त है-दुखप्रद है अथवा बड़ी कठिनाई से इसका अन्त आता है। इस प्रकार यह चौथा अधर्म द्वार अब्रह्म का वर्णन है, ऐसा मैं
कहता हूँ। ५३. उदाहरण सहित मैथुन सेवन के असंयम का प्ररूपणप्र. भन्ते ! मैथुनसेवन करते हुए जीव के किस प्रकार का असंयम
होता है ? उ. गौतम ! जैसे कोई पुरुष तपी हुई सोने की (या लोहे की) सलाई
(डालकर उस) से बांस की रूई से भरी हुई नली या बूर नामक वनस्पति से भरी नली को जला डालता है, उसी प्रकार
हे गौतम ! मैथुन सेवन करते हुए जीव को असंयम होता है। ५४. परिग्रह का स्वरूप
जम्बू ! यह पांचवां परिग्रह-आश्रव है, जो इस प्रकार हैअनेक मणियों, स्वर्ण, कर्केतन आदि रत्नों, बहुमूल्य सुगंधमय पदार्थ, पुत्र, पली, परिवार, दासी, दास, भृतक, प्रेष्य, संदेश वाहक, हाथी, घोड़े, गाय, भैंस, ऊंट, गधा, बकरा और गवेलक-भेड़, शिविका-पालकी, शकट-गाड़ी-छकड़ा रथ, यान, युग्य-विशेष प्रकार की गाड़ी, स्यन्दन-क्रीडारथ, शयन, आसन, वाहन तथा कुप्य-गृहस्थी के उपयोग में आने वाला विविध प्रकार का सामान, धन, धान्य, गेहूं, चावल आदि पेय पदार्थ, भोजन-भोज्य वस्तु, आच्छादन-पहनने ओढने के वस्त्र, गन्ध-कपूर आदि फूलों की माला, बर्तन-भांडे तथा भवन आदि को अनेक प्रकार के विधानों द्वारा भोग लेने पर भीहजारों पर्वतों, नगरों, निगमों, जनपदों, महानगरों, द्रोणमुखों, खेटों, कर्बटों, कस्बों, मडंबों, संबाहों तथा पत्तनों से सुशोभित भरतक्षेत्र तथा जहां के निवासी निर्भय होकर निवास करते हैं, ऐसे सागरपर्यन्त पृथ्वी का एकछत्र अखण्ड राज्य कर लेने पर
भी-परिग्रह से तृप्ति नहीं होती। ५५. परिग्रह को वृक्ष की उपमा
(परिग्रह वृक्ष के समान है, जिसका वर्णन इस प्रकार है-) कभी और कहीं भी जिसका अन्त नहीं आता ऐसी अपरिमित एवं अनन्त तृष्णा रूपी महती इच्छाओं में ही अक्षय एवं अशुभ फल वाले इस वृक्ष की (जड़) मूल है। लोभ, कलह-लड़ाई-झगड़ा और क्रोधादि कषाय इसके महास्कन्ध हैं। चिन्ता. मानसिक सन्ताप आदि की अधिकता से अथवा निरन्तर उत्पन्न होने वाली सैकड़ों चिन्तायें इसकी विस्तीर्ण शाखाएं हैं। ऋद्धि, रस और साता रूप गारव ही इसके विस्तीर्ण शाखाग्र हैं। निकृति-दूसरों को ठगने के लिए की जाने वाली वंचना-ठगाई या कपट ही इस वृक्ष की त्वचा, छाल और पल्लव कोपलें हैं।
गंध-मल्ल-भायण-भवणविहिं चेव,
बहुविहीयं भरहं णग-णगर-णिगम-जणवय-पुरवर- दोणमुहखेड - कब्बड - मडंब - संबाह - पट्टण - सहस्स - परिमंडियथिमिय-मेइणीयं, एगछत्तं ससागरं भंजिऊण वसुह।
-पण्ह. आ.५.सु.९३ (क)
५५. परिग्गहस्स रुक्खोवमा
अपरिमियमणंत-तण्हमणुगयमहिच्छसार-निरयमूलो,
लोह-कलि-कसाय-महक्खंधो,
चिंता-सय-निचिय-विउलसालो,
गारवपविरल्लियग्ग-विडवो, नियडि-तया-पत्त-पल्लवधरो,