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आश्रव अध्ययन
अकित्तणिज्जे परिग्गहे चेव होंति नियमा सल्ला-दंडा य गारवा य कसाया सन्ना य कामगुण - अण्हगा य इंदियलेस्साओ सयणसंपओगा सचित्ताचित्त- मीसगाई दव्वाई अणंतगाई इच्छंति परिघेत्तुं। सदेव-मणुयासुरंमि लोए लोभ परिग्गहो जिणवरेहिं भणिओ नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो अत्थि सव्वजीवाणं सव्वलोए।
-पण्ह. आ.५,सु.९६
५९. परिग्गह फलं
परलोगंमि य नट्ठा तमं पविट्ठा महयामोहमोहियमई तिमिसंधकारे तस-थावर सुहुम-बायरेसु पज्जत्तम पज्जत्तग एवं जाव परियति दीहमद्धं जीवा लोभवस-सन्निविट्ठा।
एसो सो परिग्गहस्स फलविवाओ इहलोइओ पारलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महब्भओ बहुरयप्पगाढो दारुणो, कक्कसो असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चइ न अवेयइत्ता अस्थि हु मोक्खोत्ति।
एवमाहंसु नायकुलनंदणो महप्पा जिणो उ वीरवर-नामधेज्जो कहेसी य परिग्गहस्स फलविवागं। -पण्ण. आ.५, सु. ९७(क)
१०३९ इस निन्दनीय परिग्रह में ही नियम से शल्य, दण्ड, गारव, कषाय, संज्ञा, कामगुण इन्द्रियविकार और अशुभलेश्याएं होती हैं। स्वजनों के साथ संयोग होते हैं और परिग्रहवान् असीम-अनन्त सचित्त, अचित्त एवं मिश्र द्रव्यों को ग्रहण करने की इच्छा करते हैं। देवों, मनुष्यों और असुरों सहित इस त्रस स्थावररूप लोक जगत् में जिनेन्द्र भगवन्तों ने इस लोभ परिग्रह का प्रतिपादन किया है। वास्तव में इस लोक में सर्व जीवों के लिए परिग्रह के समान अन्य
कोई पाश फंदा बन्धन नहीं है। ५९. परिग्रह के फल
परिग्रह में आसक्त प्राणी परलोक में और इस लोक में नष्ट भ्रष्ट होते हैं, अज्ञानान्धकार में प्रविष्ट होते हैं, तीव्र मोहनीयकर्म के उदय से मोहित मति वाले, लोभ के वश में पड़े हुए जीव त्रस, स्थावर, सूक्ष्म और बादर पर्याप्तक और अपर्याप्तक अवस्थाओं में यावत् चार गति वाले संसार कानन में परिभ्रमण करते हैं। परिग्रह का यह इस लोक सम्बन्धी और परलोक सम्बन्धी फलविपाक अल्प सुख और अत्यन्त दुःख वाला है। महान् भय से परिपूर्ण है, अत्यन्त कर्म-रज से प्रगाढ है, दारुण है, कठोर है और असाता का हेतु है। हजारों वर्षों में अर्थात् बहुत दीर्घ काल में इससे छुटकारा मिलता है। किन्तु इसके फल को भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता। इस प्रकार ज्ञातकुलनन्दन महात्मा वीरवर (महावीर) जिनेश्वर देव ने परिग्रह नामक इस पंचम (आश्रव द्वार के) फल विपाक का
प्रतिपादन किया है। ६०. परिग्रह का उपसंहार
अनेक प्रकार की चन्द्रकान्त आदि मणियों, स्वर्ण कर्केतन आदि रत्नों तथा बहुमूल्य अन्य द्रव्य यह पांचवां आश्रवद्वार परिग्रह मोक्ष के मार्गरूप मुक्ति-निर्लोभता के लिए अर्गला के समान है। इस प्रकार यह अन्तिम परिग्रह आनवद्वार का वर्णन हुआ, ऐसा
मैं कहता हूँ। ६१. आश्रव अध्ययन का उपसंहार
इन पूर्वोक्त पांच आश्रवद्वारों के निमित्त से जीव प्रतिसमय कर्मरूपी रज का संचय करके चार गतिरूप संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। जो पुण्यहीन प्राणी धर्म को श्रवण नहीं करते और श्रवण करके भी उसका आचरण करने में प्रमाद करते हैं, वे अनन्त काल तक चार गतियों में गमनागमन (जन्म-मरण) करते रहेंगे। जो पुरुष मिथ्यादृष्टि हैं,अधार्मिक हैं, जिन्होंने निकाचित कर्मों का बन्ध किया है, वे अनेक प्रकार से शिक्षा पाने पर भी धर्म का श्रवण तो करते हैं किन्तु उसका आचरण नहीं करते हैं। जिन भगवान् के वचन समस्त दुःखों का नाश करने के गुणयुक्त मधुर विरेचन औषध हैं, किन्तु निःस्वार्थ भाव से दी जाने वाली इस औषध को जो पीना ही नहीं चाहते, उनके लिए क्या कहा जा सकता है? जो प्राणी पांच हिंसा आदि आम्रवों को त्याग कर और पांच (अहिंसा आदि संवरों) की भावपूर्वक रक्षा करते हैं, वे कर्म-रज से सर्वथा मुक्त होकर सर्वोत्तम सिद्धि मुक्ति को प्राप्त करते हैं।
६०. परिग्गहस्स उवसंहारो
एसो सो परिग्गहो पंचमो उ नियमा नाना-मणि-कणगरयणमहरिह एवं जाव इमस्स मोक्खवरमोक्तिमग्गस्स फलिहभूयो। चरिमं अहम्मदारं समत्तं,ति बेमि।
-पण्ण. आ.५, सु. ९७ (ख) ६१. आसवाज्झयणस्स उवसंहारो
एएहिं पंचहिं आसवेहि, रयमाइणित्तु अणुसमयं। चउव्विहगइपेरंतं, अणुपरियटति संसारे॥
सव्वगइपक्खंदे, काहिंति अणंतए अकयपुण्णा। जे यण सुणंति धम्म,सोऊण य जे पमायंति॥
अणुसिटुं वि बहुविहं,मिच्छदिट्ठिया जे णरा अहम्मा। बद्धणिकाइयकम्मा, सुणंति धम्म ण य करेंति॥
किं सक्का काउंजे,णेच्छइ ओसहं मुहा पाउं। जिणवयणं गुणमहुरं, विरेयणं सव्वदुक्खाणं॥
पंचेव य उज्झिऊणं, पंचेव य रक्खिऊणं भावेणं। कम्मरय-विप्पमुक्कं, सिद्धिवरमणुत्तरं जंति॥
-पण्ण. सु.१ अंतिम