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आश्रव अध्ययन
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पंचविहा जोइसिया य देवा१.चंद,२.सूर, १.बहस्सइ,२.सुक्क, ३. सणिच्छरा, ४. बुधा, ५. अंगारका, ६. राहु, ७. धुमकेउ, य तत्त-तवणिज्ज-कणयवण्णा जे य गहा जोइसम्मि चार चरंति केऊय गइ रईया
अट्ठावीसइ विहा य नक्खत्तदेवगणा नाणासंठाण-संठियाओ य-तारगाओ ठियलेस्सा चारिणो य अविस्साममंडलगई उवरिचर।
उड्ढलोगवासी दुविहा वेमाणिया य देवा,तं जहा१.कप्पोपन्ना, २.कप्पातीया १-२. सोहम्मीसाण, ३. सणंकुमार, ४. माहिंद, ५. बंभलोग, ६. लंतक, ७. महासुक्क, ८. सहस्सार, ९. आणय, १०.पाणय, ११.आरण,१२.अच्चुया, कप्पवरविमाणवासिणी सुरगणा,
गेवेज्जा अणुत्तरा दुविहा-कप्पातीया, विमाणवासी महिड्ढिया उत्तमा सुरवरा।
एवं च ते चउव्विहा सपरिस्साविं देवा ममायंति।
पांच प्रकार के ज्योतिष्क देव१. चन्द्र, २. सूर्य १. वृहस्पति, २. शुक्र, ३. शनैश्चर, ४. बुध, ५.अंगारक-मंगल, ६. राहू, ७. केतु और तपाये हुए स्वर्ण जैसे वर्ण वाले अन्य ग्रह ज्योतिष्कचक्र में संचरणशील गति में प्रसन्नता का अनुभव करने वाले केतु आदि। अट्ठाईस प्रकार के नक्षत्र देवगण, नाना प्रकार के संस्थान वाले तारागण, स्थिर कान्ति वाले, मनुष्य क्षेत्र, अढाई द्वीप से बाहर के स्थिर और मनुष्य क्षेत्र के भीतर संचार करने वाले तथा अविश्रान्त लगातार बिना रुके वर्तुलाकार गति करने वाले, ज्योतिष्क देव ममत्वपूर्वक परिग्रह को ग्रहण करते हैं। उर्ध्वलोक में निवास करने वाले दो प्रकार के वैमानिक देव, यथा१.कल्पोपपन्न, २. कल्पातीत। १, सौधर्म, २. ईशान, ३. सानत्कुमार, ४. माहेन्द्र, ५. ब्रह्मलोक, ६. लान्तक,७. महाशुक्र, ८. सहस्रार, ९. आनत, १०. प्राणत, ११. आरण, १२. अच्युत। ये बारह उत्तम कल्प विमानों में वास करने वाले कल्पोपपन्न देव हैं। (नौ) ग्रैवेयकों और (पांच) अनुत्तर विमानों में रहने वाले दो प्रकार के कल्पातीत देव हैं। ये विमानवासी वैमानिक देव महान् ऋद्धि के धारक श्रेष्ठ देव हैं। ये चारों निकायों के देव अपनी-अपनी परिषद् सहित परिग्रह को ग्रहण करते हैं, उसमें मूच्र्छाभाव रखते हैं। ये सभी देव, भवन, वाहन, यान, विमान, शय्या, भद्रासन, विविध प्रकार के वस्त्र एवं श्रेष्ठ आभूषण-शस्त्रास्त्रों को, अनेक प्रकार की पंचरंगी मणियों, दिव्य पात्रों को, विक्रियालब्धि से इच्छानुसार रूप बनाने वाली कामरूपा अप्सराओं के समूह को, द्वीपों, समुद्रों, दिशाओं, विदिशाओं, चैत्यों, वनखण्डों और पर्वतों को, ग्राम, नगर, आराम, उद्यान और काननों को, कूप, सरोवर, तालाब, बावड़ी, दीर्घिका, देवकुल-देवालय, सभा, प्रपा (प्याऊ) बस्ती और बहुत से कीर्तनीय-स्तुतियोग्य धर्मस्थानों को ममत्वपूर्वक ग्रहण करते हैं और इस प्रकार के विपुल द्रव्य वाले परिग्रह को ग्रहण करके इन्द्रों सहित देवगण भी न तृप्ति का और न सन्तुष्टि का अनुभव कर पाते हैं। ये सब देव अत्यन्त तीव्र लोभ से अभिभूत संज्ञा वाले हैं। अतः वर्षधर पर्वतों, इषुकारपर्वतों, वृत्त वैताढ्य पर्वतों, कुण्डल पर्वतों, रूचकवर पर्वतों, मानुषोत्तर पर्वतों, कालोदधि समुद्र, लवणसमुद्र, सलिला (गंगा आदि महा-नदियां) द्रहपति सरोवर, रतिकर पर्वतों, अंजनक पर्वतों, दधिमुखपर्वतों, अवपात पर्वतों, उत्पात पर्वतों, कांचनक पर्वतों, चित्र-विचित्रपर्वतों, यमकवर पर्वतों और शिखरी कूट आदि में रहने वाले ये देव भी तृप्त नहीं हो पाते तो फिर अन्य प्राणियों का तो कहना ही क्या?
भवण-वाहण-जाण-विमाण-सयणासणाणि य, नाणाविहवत्थ भूसणा, पवर-पहरणाणि य, नाणामणि पंचवण्ण-दिव्वं च भायणविहिं नाणाविहकामरूवे वेउव्विय-अच्छरगणसंघाए,
दीव-समुद्दे दिसाओ विदिसाओ चेइयाणि वणसंडे पव्वए य,
गामनगराणि य आरामुज्जाण-काणणाणि य, कूव - सर - तलाग - वावि - दीविय - देवकुल - सभ - प्पववसहिमाइयाहिं बहुकाई कित्तणाणि यपरिगेण्हित्ता परिग्गहं विपुलदव्वसारं देवावि सइंदगा न तित्तिं न तुह्रि उवलभंति।
अच्चंत-विपुल-लोभाभिभूयसन्ना, वासहर-इक्खुगार-वट्ट-पव्वय-कुंडल - रूयगवर- माणुसोत्तर - कालोदधि-लवणसलिल-दहपति-रतिकर अंजणकसेलदहिमुह ओवाउप्पाय कंचणक-चित्त-विचित्त-जमकवर सिहरी कूडवासी,