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पुष्फफलं जस्स कामभोगा आयास-विसूरणा-कलह-पकंपियग्गसिहरो,
नरवइ संपूजिओ बहुजणस्स हिययदइओ इमस्स मोक्खवर-मोत्तिमग्गस्स फलिहभूओ चरिमं अहम्मदारं।
-पण्ह. आ.५,सु. ९३ (ख) ५६. परिग्गहस्स पज्जवणामाणि
तस्स य नामाणि इमाणि गोण्णाणि होति तीसं,तं जहा
१.परिग्गहो, २. संचयो,३. चयो, ४. उवचओ,५.निहाणं, ६. संभारो, ७. संकरो, ८. आयरो, ९. पिंडो, १०. दव्वसारो, ११. तहा-महिच्छा, १२. पडिबंधो, १३. लोहप्पा, १४. महिड्ढिया, १५. उवकरणं, १६. संरक्खणा य, १७. भारो, १८. संपाउप्पायओ, १९. कलिकरंडो, २०. पवित्थरो, २१. अणत्थो, २२. संथवो, २३. अगुत्ति (अकित्ति), २४. आयासो, २५. अविओगो, २६. अमुत्ती, २७. तण्हा, २८. अणत्थओ, २९.आसत्ती, ३०.असंतोसो त्ति विय। तस्स एयाणि एवमादीणि नामधेज्जाणि होति तीसं।
-पण्ह. आ.५,सु.९४
द्रव्यानुयोग-(२)) काम भोग ही इस वृक्ष के पुष्प और फल हैं। शारीरिक श्रम, मानसिक खेद और कलह ही इसका कम्पायमान अग्रशिखर हैं। यह अन्तिम अधर्मद्वार राजा-महाराजाओं द्वारा सम्मानित अधिकांश लोगों को हृदय-प्रिय और मोक्ष प्राप्ति के उपाय
निर्लोभता रूप मार्ग के लिए अर्गला के समान है। ५६. परिग्रह के पर्यायवाची नाम
उस परिग्रह के गुणनिष्पन्न अर्थात् वास्तविक अर्थ को प्रकट करने वाले ये तीस नाम हैं, यथा१. परिग्रह-पदार्थों के प्रति मूर्छा ममत्व भाव, २. संचयअनावश्यक वस्तुओं को इकट्ठा करना, ३. चय-संग्रह करना, ४. उपचय-प्राप्त वस्तुओं के परिमाण में वृद्धि करना, ५.निधानधन को भूमि आदि में दबाकर रखना, ६. सम्भार-वस्तुओं को एकत्रित करने को लालसा बढ़ाना, ७. संकर-मिलावट करना, ८.आदर-पर पदार्थों की सार-संभाल करते रहना,९.पिण्ड-ढेर करना, १०. द्रव्यसार-धन को प्राणों से भी अधिक प्रिय.समझना, ११. महेच्छा-असीम इच्छा, १२. प्रतिबन्ध-लोभ में फंस जाना, १३. लोभात्मा-लोभ वृत्ति-कृपणता, १४. महद्दिका-महर्धिका बड़े-बड़े मनसूबे बांधना या याचना करना, १५. उपकरणअमर्यादित साधन सामग्री एकत्रित करना, १६. संरक्षणा-प्राप्त वस्तुओं की आसक्ति पूर्वक रक्षा करना, १७. भार-जीवन को भार रूप, १८. संपातोत्पादक-संकल्प विकल्पों का उत्पादक, १९. कलिकरण्ड-वैर विरोध का पिटारा, २०. प्रविस्तर-अपनी क्षमता से अधिक व्यापार धन्धे का विस्तार, २१. अनर्थयातनाओं का कारण, २२. संस्तव-मोह आसक्ति का जनक, .२३. अगुप्ति या अकीर्ति-कामना की स्वच्छंदता अपकीर्ति का कारण, २४, आयास-मानसिक-शारीरिक खेद, थकावट का उत्पादक २५.अवियोग-पर पदार्थों को अलग न होने देना, २६. अमुक्ति-लोभ वृत्ति, २७. तृष्णा-लालसा, २८. अनर्थक-परमार्थ में अनुपयोगी, २९. आसक्ति-गृद्धि, ३०.असन्तोष-संतुष्टि नहीं होना। ये सार्थक तीस नाम हैं इसी प्रकार के और भी उसके सार्थक नाम
हो सकते हैं। ५७. लोभग्रस्त देव-मनुष्य
उस पूर्वोक्त स्वरूप वाले परिग्रह के लोभ से ग्रस्त, परिग्रह के प्रति रुचि रखने वाले, नाना प्रकार से परिग्रह को संचित करने की बुद्धि वाले, उत्तम भवनों यावत् विमानों में निवास करने वाले देवों के निकाय-समूह हैं, यथा१.असुरकुमार, २. नागकुमार, ३. सुपर्णकुमार, ४. विद्युत्कुमार, ५. ज्वलन-अग्नि कुमार, ६. द्वीपकुमार, ७. उदधिकुमार, ८.दिशाकुमार, ९. पवनकुमार, १०. स्तनितकुमार, ये दस प्रकार के भवनवासी देव तथा१. अणपन्निक, २. पणपन्निक, ३. ऋषिवादिक, ४. भूतवादिक, ५. क्रन्दित, ६. महाक्रन्दित,७. कूष्माण्ड, ८. पतंग, ९. पिशाच, १०. भूत, ११. यक्ष, १२. राक्षस, १३. किन्नर, १४. किम्पुरुष, १५. महोरग एवं १६. गन्धर्व, तिर्यक्लोक में निवास करने वाले, ये महर्द्धिक व्यन्तर देव।
५७. लोभघत्था देव-मणुया
तं च पुण परिग्गहँ ममायंति, लोभघत्था भवणवइ जाव विमाणवासिणो परिग्गहरुई परिग्गहे विविहकरणबद्धी देवनिकाया य।
१. असुर, २. भुयग, ३. सुवण्ण, ४. विज्जु, ५. जलण, ६.दीव,७.उदहि,८.दिसि,९.पवण,१०.थणिय,
१. अणवन्निय, २. पणवन्निय, ३. इसिवाइय, ४. भूयवाइय, ५. कंदिय, ६. महाकंदिय, ७. कुहंड, ८. पतंगदेवा, ९. पिसाय, १०. भूय, ११. जक्ख, १२. रक्खस, १३. किंनर, १४. किंपुरिस, १५. महोरग, १६. गंधव्वा य तिरियवासी।