________________
आश्रव अध्ययन
पमुइय वरतुरगसीह अइरेग पट्टिय-कडी,
गंगावत्त- दाहिणावत्त-तरंग-भंगुर रविकिरण-विकोसायंतपन्हगंभीर - वियड-नाभी,
संहित- सोणंद - मुसल - दप्पण- निगरिय वर कणगच्छरूसरिस - वर- वइर- वलिय-मज्झा,
उज्जुग - सम-सहिय - जच्च तणु-कसिणणिद्ध आदेज्जलउह- सुमाल-मउय- रोमराई.
इस विहग सुजात-पीनकुच्छी,
झसोयरा,
पम्हविगड नाभि,
सन्नय पासा, संगय-पासा, सुंदर पासा, सुजात पासा, मित-माइय- पीण - रइय पासा,
अकरंडुय-कमग रूयग-निम्मल-सुजाय-निरुवहय देहधारी,
कणग-सिलातल-पसत्थ-समतलउवइय- विच्छिन्न-पिहुल बच्छा,
जुब
- सनिभ- पीण रइय- पीवर पउट्ठ- सठिय-सुसिलि
विसिट्ठ-लट्ठ-सुनिचित-घण-थिर- सुबद्ध-संधी,
पुरवर फलिय-बट्ठिय-भुया,
भूय ईसर विपुल भोग आयाण- फलि उच्छूढ दीह बाहू,
रत्त तलोवइय मउय मंसल सुजाय लक्खण पसत्थ अच्छिद्दजाल- पाणी,
पीवर - सुजाय कोमल-वरंगुली, तब-तलिण-सुइ-रुल- निद्ध-नखा,
·
णिद्ध-पाणिलेहा, रवि-ससि संखवर चक्क - दिसासोवत्थियविभत्त-सुविरइय-पाणिलेहा,
-
वरमहिस - वराह - सीह सद्दूलरिसह नागरवर पडिपुन्नविउलखधा,
चउरंगुल -सुप्पमाण-कंबूवर-सरिसग्गगीया, अवट्ठिय सुविभत्त-चित्त-मंसू,
उवचिय-मंसल-पसत्थ-सद्दूल-विपुल- हणुया,
१०२९
कटिभाग - कमर का भाग, हृष्ट-पुष्ट एवं श्रेष्ठ अश्व और सिंह की कमर के समान गोल होता हैं।
नाभि - गंगा नदी के आवर्त्त-भंवर दक्षिणावर्त्त तरंगों के समूह के समान चक्करदार तथा सूर्य की किरणों से विकसित कमल की तरह गंभीर और विशाल होती है।
शरीर का मध्यभाग- त्रिकाष्ठिका तिपाई, मूसल, दर्पण के हत्थे, शुद्ध किए हुए उत्तम स्वर्ण से निर्मित खड्ग की मूठ एवं श्रेष्ठ वज्र के समान कृश - पतला व गोल होता है।
रोमराजि - सीधी, समान, परस्पर सटी हुई स्वभावतः बारीक, कृष्णवर्ण, चिकनी, प्रशस्त-सौभाग्यशाली, पुरुषों के योग्य सुकुमार और सुकोमल होती है।
कुक्षि पार्श्वभाग - मत्स्य और विहग-पक्षी जैसी उत्तम रचना वाली और पुष्ट होती हैं।
पेट झषोदर मत्स्य जैसा होता है।
नाभि-कमल के समान गंभीर होती है।
पार्श्वभाग नीचे की ओर झुके हुए होते हैं, अतएव संगत, सुन्दर और सुजात-अपने योग्य गुणों से सम्पन्न होते हैं। ये पार्श्व-प्रमाणोपेत एवं परिपुष्ट होते हैं।
पीठ और बगल की हड्डियां मांसयुक्त व स्वर्ण के आभूषण के समान निर्मल कान्तियुक्त सुन्दर बनावट वाली और निरुपहत-रोगादि के उपद्रव से रहित होती हैं।
बक्षस्थल - सोने की शिला के तल के समान प्रशस्त, समतल, उपचित-पुष्ट विस्तीर्ण और विशाल होता है।
कलाइयां गाड़ी के जुए के समान पुष्ट मोटी एवं रमणीय होती हैं, तथा
अस्थिसन्धियां-अत्यन्त सुडौल, सुगठित, सुन्दर मांसल और नसों से दृढ़ बनी होती हैं।
भुजाएँ नगर के द्वार की आगल के समान लम्बी और गोलाकार होती है।
बाहू भुजगेश्वर शेषनाग के विशाल शरीर के समान और अपने स्थान से पृथक् की हुई आगल समान लम्बे होते हैं। हाथ-लाल-लाल हथेलियों वाले
के
"
परिपुष्ट कोमल, मांसल, सुन्दर बनावट वाले शुभ लक्षणों से युक्त और निश्छिद्र-छेद रहित होते हैं। अंगुलियां - आपस में सटी हुई श्रेष्ठ कोमल होती हैं।
नख - ताम्रवर्ण तांबे जैसे वर्ण के लालिमा युक्त पतले स्वच्छ सुन्दर और चिकने होते हैं।
हस्तरेखा - सूर्य, चन्द्र, शंख, उत्तम चक्र, दक्षिणावर्त स्वस्तिक आदि शुभ चिन्हों से सुविरचित और चिकनी होती है।
कंधे - उत्तम महिष, शूकर, सिंह, व्याघ्र, सांड और गजराज के कंधे के समान परिपूर्ण पुष्ट होते हैं।
ग्रीवा-गर्दन चार अंगुल परिमित ऊँची एवं शंख जैसी होती है। दादी मूछे अवस्थित न घटने वाली और न बढ़ने वाली सदा एक सरीखी तथा सुविभक्त होती है।
ठुड्डी-पुष्ट मांसयुक्त सुन्दर तथा व्याघ्र के समान विस्तीर्ण होती है।