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नरसीहा सीहविक्कमगई,
अत्यमिय-पवर-रायसीहा, सोमा बारवइ पुण्ण चंदा पुव्वकयतवप्पभावा, निविट्ठसंचियसुहा अणेगवाससयमाउवंता,
भज्जाहि य जणवयप्पहाणाहिं लालियंता अतुल-सद्दफरिस-रस-रूव-गंधे अणुभवेत्ता तेवि उवणमंति मरणधम्म अवित्तिया कामाणं।
-पण्ह. आ.४, सु.८६
४८. मंडलीय रायाणं भोगासत्ति
भुज्जो मंडलियनरवरेंदा सबला सअंतेउरा सपरिसा सपुरोहियाऽऽमच्च-दंडनायक-सेणावइ-मंतनीतिकुसला, नाणामणि-रयण-विपुल-धण-धन्न-संचय-निही समिद्धकोसा, रज्जसिरिं विपुलमणुभवित्ता विक्कोसंता बलेणमत्ता ते वि उवणमंति मरणधम्म,अवितत्ता कामाणं।
-पण्ह.आ.४,सु.८७
४९. अकम्मभूमि इत्थी-पुरिसाणं भोगासत्ति
भुज्जो उत्तरकुरु-देवकुरु वणविवर-पादचारिणो नरगणा भोगुत्तमा भोगलक्खणधरा भोगसस्सिरिया पसत्थ-सोमपडिपुण्णरूवदरिसणिज्जा सुजाय सव्वंग सुंदरंगा,
द्रव्यानुयोग-(२) वे नरों में सिंह के समान प्रचण्ड पराक्रम के धनी होते हैं। उनकी गति सिंह के समान पराक्रमपूर्ण होती है। वे बड़े-बड़े राज-सिंहों को समाप्त कर देने वाले अथवा युद्ध में उनकी जीवन लीला को समाप्त कर देते हैं। फिर भी प्रकति से सौम्य-शान्त-सात्त्विक होते हैं। वे द्वारवती-द्वारका नगरी में पूर्ण चन्द्रमा के समान प्रिय एवं पूर्वजन्म में किये तपश्चरण के प्रभाव वाले होते हैं। पूर्वसंचित इन्द्रियसुखों के उपभोक्ता और अनेक सौ वर्षों की आयु वाले होते हैं। विविध देशोत्पन्न उत्तम पत्नियों के साथ भोग-विलास करते हैं, अनुपम शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्धरूप इन्द्रियविषयों का अनुभव-भोगोपभोग करते हैं, फिर भी वे बलदेव वासुदेव
कामभोगों से तृप्त हुए बिना ही कालधर्म को प्राप्त होते हैं। ४८. मांडलिक राजाओं की भोगासक्ति
बलदेव और वासुदेव के अतिरिक्त सबल और सैन्यसम्पन्न विशाल अनन्त परिवार एवं परिषदों से संपन्न शान्तिकर्म करने वाले पुरोहितों अमात्यों-मंत्रियों दंडाधिकरियों-दंडनायकों, सेनापतियों, गुप्त मंत्रणा करने वाले एवं नीति में निपुण व्यक्तियों के स्वामी अनेक प्रकार की मणियों रनों विपुल धन और धान्य से समृद्ध अपनी विपुल राज्य लक्ष्मी का भोगोपभोग करके, शत्रुओं का पराभव करके अथवा भण्डार के स्वामी होकर अपने बल शक्ति से उन्मत्त रहने वाले माण्डलिक राजा भी कामभोगों से तृप्त नहीं हुए,
वे भी अतृप्त रहकर ही कालधर्म मृत्यु को प्राप्त हो गए। ४९. अकर्मभूमि के स्त्री पुरुषों की भोगासक्ति
इसी प्रकार देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्रों में वनों में और गुफाओं में पैदल विचरण करने वाले उत्तम भोगसाधनों से सम्पन्न प्रशस्त शारीरिक लक्षणों (स्वस्तिक आदि) युक्त भोग लक्ष्मी से युक्त प्रशस्त मंगलमय सौम्य एवं रूपसम्पन्न होने के कारण दर्शनीय सामुद्रिक शास्त्र के अनुरूप निर्मित सर्वांग सुन्दर अंगों वाले होते हैं। तलुवे-हथेलियों और पैरों के तलभाग लाल कमल के पत्तों की भांति लालिमायुक्त और कोमल होते हैं। पैर-कछुए की पीठ के समान ऊपर उठे हुए सुप्रतिष्ठित होते हैं। अंगुलियां-अनुक्रम से बड़ी-छोटी, सुसंहत-सघन-छिद्ररहित वाली होती हैं। नख-उन्नत उभरे हुए, पतले, रक्तवर्ण और चिकने-चमकदार होते हैं। पैरों के गुल्फ टखने-सुस्थित, सुघड और मांसल होने के कारण दिखाई नहीं देते हैं। पिण्डलियां-हिरणी की जंघा, कुरुविन्द नामक तृण और वृत्त-सूत कातने की तकली के समान क्रमशः वर्तुल एवं स्थूल होती हैं। घुटने-डिब्बे एवं उसके ढक्कन की संधि के समान गूढ होते हैं। गति-उत्तम हस्ती के समान मस्त एवं धीर गंभीर होती है। गुह्यदेश-गुप्तांग-जननेन्द्रिय उत्तम जाति के घोड़े के गुप्तांग के समान सुनिर्मित एवं गुप्त होता है। गुदाभाग-उत्तम जाति के अश्व के गुदाभाग की तरह मलमूत्र से निर्लेप होता है।
रत्तुप्पलपत्त-कंतकरचरणकोमलतला,
सुपइट्ठिय-कुम्मचारुचलणा, अणुपुव्व सुसंह यंगुलीया,
उन्नय-तणु-तंब-निद्ध नखा,
संठित-सुसिलिट्ठ-गूढगुंफा,
एणीकुरु विंद-वत्त-वट्टाणुपुव्वी जंघा,
समुग्ग-निसाग-गूढजाणू वर-वारण-मत्त-तुल्ल विक्कम-विलसिय गई, वरतुरग-सुजाय-गुज्झदेसा,
आइन्न-हयव्व-निरूवलेवा,