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९९९ । करना, नौकर-चाकरों तथा गाय-भैंस-बैल आदि पशुओं की दवा और आहार आदि के लिए खोदना, छानना, मोड़ना, सड़ जाना, स्वयं टूट जाना, मसलना, छेदन करना, छीलना, रोमों का उखाड़ना, पत्ते आदि तोड़ना, अग्नि से जलाना, इस प्रकार भवपरम्परा में दुःखों से अनुबद्ध हिंसाकारी पापी जीव भयंकर संसार में अनन्त काल तक परिभ्रमण करते रहते हैं।
आश्रव अध्ययन
कज्जप्पओयणेहिं य पेस्सपसुनिमित्तं ओसहाहारमाइएहिं उक्खणण-उक्कत्थण-पयण-कोट्टण-पीसण-पिट्टणभज्जण-गालण-आमोडण-सडण-फुडण-भंजण-छेयणतच्छण-विलुंचण-पत्तज्झोडण अग्गिदहणाइयाई, एवं ते भवपरंपरादुक्खसमणुबद्धा अडंति संसारबीहणकरे जीवा पाणाइवायनिरया अणंतकालं।
-पण्ह. आ.१.सु.३३-४१ १८. कुमाणुसाणं दुक्ख वण्णणं
जे वि य इह माणुसत्तणं आगया कहिं वि णरगा उव्वट्ठिया अधन्ना ते वि य दीसंति पायसो विकय-विगलरूवा खुज्जा वडभा य, वामणा य, बहिरा, काणा, कुंटा, पंगुला विगला य, मूका य, ममणा य, अंधयगा एगचक्खू विणिहय-संचिल्लया वाहिरोगपीलिय-अप्पाउय-सत्थबज्झबाला कुलक्खणुक्किनदेहा दुब्बल-कुसंघयण-कुप्पमाण-कुसंठिया कुरूवा किविणा य हीणा हीणसत्ता णिच्चं सोक्खपरिवज्जिया असुहदुक्खभागी णरगाओ इहं सावसेसकम्मा उव्वटिया समाणा।
-पण्ह. आ.१, सु. ४२
१९. पाणवह वण्णणस्स उवसंहारो
एवं णरगं तिरिक्खजोणिं कुमाणुसत्तं च हिंडमाणा पावंति अणंताई दुक्खाई पावकारी।
एसो सो पाणवहस्स फलविवागो, इहलोइओ पारलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महब्भयो बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असाओ वाससहस्सेहिं मुंचई न य अवेदयित्ता अस्थि हु मोक्खोत्ति। एवमाहंसु नायकूलनंदणो महप्पा जिणो उ वीरवरनामधेज्जो कहेसि य पाणवहस्स फलविवागं।
१८. कुमनुष्यों के दुःखों का वर्णन
जो अधन्य दुर्भागी पापी जीव नरक से निकल कर यदि किसी भी प्रकार से मनुष्य पर्याय में उत्पन्न होते हैं तो जिनके पापकर्म भोगने से शेष रह जाते हैं, वे भी प्रायः विकृत एवं अपरिपूर्ण आकृति वाले, कुबड़े, टेढ़े-मेढ़े शरीर वाले, बौने, बहरे, काने टूटे हाथ वाले, लंगडे, अंगहीन, गूंगे-अस्पष्ट उच्चारण करने वाले, अंधे, काणे या व्याधि और रोगों से ग्रस्त, अल्पायुष्क शस्त्र से वध किए जाने योग्य, अशुभ लक्षण वाले, दुर्बल, अप्रशस्त संहनन वाले, बेडौल अंगोपांगों वाले, खराब संस्थान वाले, कुरूप, दीन, हीन, सत्वविहीन सुख से सदा वंचित रहने वाले और अशुभ दुःखों के
भागी होते हैं। १९. प्राणवध वर्णन का उपसंहार
इसी प्रकार हिंसारूप पापकर्म करने वाले प्राणी नरक और तिर्यञ्चयोनि में तथा कुमानुष-अवस्था में भटकते हुए अनन्त दुःख प्राप्त करते हैं। यह-पूर्वोक्त प्राणवध हिंसा का फलविपाक है, जो इहलोकमनुष्यभव और परलोक-नारकादि भव में भोगना पड़ता है। यह फलविपाक अल्प सुख किन्तु भव-भवान्तर में अत्यधिक दुःख देने वाला है। महान् भय का जनक है और अतीव गाढ़ कर्मरूपी रज से युक्त है। अत्यन्त दारुण है, अत्यन्त कठोर है और असाता को उत्पन्न करने वाला है। हजारों वर्षों (सुदीर्घ काल) में इससे छुटकारा मिलता है, किन्तु इसे भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता। हिंसा का यह फलविपाक ज्ञातकुल-नन्दन महात्मा महावीर नामक जिनेन्द्र देव ने कहा है। यह प्राणवध चण्ड, रौद्र, क्षुद्र और अनार्य जनों द्वारा आचरणीय है। यह घृणारहित, नृशंस, महाभयों का कारण, भयानक, त्रासजनक, अन्यायरूप और ऋजुता से रहित है, यह उद्वेगजनक दूसरे के प्राणों की परवाह न करने वाला, धर्महीन, स्नेह पिपासा से शून्य, करुणाहीन है। इसका अन्तिम परिणाम नरक प्राप्त करना है अर्थात यह नरकगति आय बंध का कारण है। मोहरूपी महाभय को बढ़ाने वाला और मरणजन्य दीनता का जनक है। इस प्रकार यह प्राणवधरूप पहला अधर्मद्वार का वर्णन है, ऐसा मैं
कहता हूँ। २०. मृषावाद का स्वरुप
जम्बू ! दूसरा आश्रवद्वार अलीकवचन-मिथ्याभाषण है। यह गुणों से रहित हीन उतावले और चंचल लोगों द्वारा बोला जाता है, यह भय उत्पन्न करने वाला, दुखदायक, अपयश एवं वैर उत्पन्न करने वाला है। यह अरति, रति, राग, द्वेष और मानसिक संक्लेश का कारण है, शुभ फल से रहित है।
एसो सो पाणवहो चंडो रुद्दो खुद्दो,अणारिओ निग्घिण्णो निसंसो महब्भओ, बीहणओ तासणओ अणज्जो अणज्जाओ उव्वेयणओ य णिरवयक्खो णिद्धम्मो निप्पिवासो निक्कलुणो निरयवासगमण-निधणोमोहमहब्भयपवड्ढओ मरणवेमणसो।
पढमं अहम्मदारं सम्मत्तं,त्ति बेमि।
-पण्ह.आ.१,सु.४३
२०. मुसावाय सरूवं
इह खलु जंबू ! बिइयं च अलियवयणं, लहुसगलहुचवलभणियं, भयंकर, दुहकरं, अयसकरं, वेरकारगं, अरइ-रइ-राग-दोस-मणसंकिलेस-वियरणं
अलियं