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आश्रव अध्ययन
लहुस्सगा असच्चा गारविया असच्चठवणाहिचित्ता उच्चच्छंदा अणिग्गहा अणियत्ता छंदेण मुक्कवाया भवंति अलियाहिं जे अविरया।
अवरे नत्थिकवाइणो वामलोकवाई भणंति-!"सुण्ण"ति।
"नत्थि जीवो। "न जाइ इह परे वा लोए। "न य किंचि वि फुसइ पुण्ण पावं। "नस्थि फलं सुकय-दुक्कयाणं। "पंचमहाभूतियं सरीरं भासंति हे वातजोगजुत्त।
"पंच य खंधे भणंति केई"
"मणं च मणजीविका वदंति, “वाउ" जीवोत्ति एवमाहंसु, “सरीरं सादियं सनिधणं इहभवे एगभवे तस्स विप्पणासंमि सबनासो त्ति एवं जपंति मुसावादी।
१००१ बिना ही प्रवृत्ति करने वाले, निस्सत्व-अधम हीन, सत्पुरुषों का अहित करने वाले दुष्ट जन, अहंकारी असत्य की स्थापना में चित्त को लगाए रखने वाले, अपने को उत्कृष्ट बताने वाले, निरंकुश, नियमहीन और बिना विचारे यदा-तदा बोलने वाले लोग जो असत्य से विरत नहीं हैं, वे असत्य बोलते हैं। इनके अतिरिक्त दूसरे नास्तिकवादी लोक में विद्यमान वस्तुओं को ही अवास्तविक कहने वाले तथा लोकविरुद्ध मान्यता वाले "यामलोकवादी" इस प्रकार कहते हैं, यह जगत् शून्य (सर्वथा असत्) है। जीव का अस्तित्व नहीं है। वह मनुष्यादि इह भव में या देवादि (परभव) में नहीं जाता। वह पुण्य पाप का लेश मात्र भी स्पर्श नहीं करता। सुकृत-दुष्कृत शुभ-अशुभ कर्म का सुख-दुःख रूप फल भी नहीं है। यह शरीर पाँच भूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) से बना हुआ है और वायु के निमित्त से सब क्रियाएँ करता है, कोई बौद्ध आत्मा को पाँच स्कन्धों (रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार) रूप कहते है। कोई रूप आदि पाँच स्कन्धों के अतिरिक्त छठे मन को भी मानते हैं, कोई मन को ही जीव (आत्मा) मानते हैं, कोई वायु को ही जीव के रूप में स्वीकार करते हैं, किन्हीं मृषावादी का मन्तव्य है कि शरीर सादि और सान्त है। यह भव ही एक मात्र भव है, इस भव का समूल नाश होने पर सर्वनाश हो जाता है अर्थात् आत्मा जैसी कोई वस्तु शेष नहीं रहती, इस कारण दान देना, प्रतों का आचरण करना, पौषध की आराधना करना, तपस्या करना, संयम का आचरण करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना आदि कल्याणकारी अनुष्ठानों का कुछ भी फल नहीं होता, प्राणवध और असत्य भाषण भी अशुभ फलदायक नहीं है। चोरी और परस्त्रीसेवन भी कोई पाप नहीं है। परिग्रह और अन्य पापकर्मों का भी कोई अशुभ फल नहीं है। नरक तिर्यञ्च और मनुष्य योनियाँ नहीं है, देवलोक भी नहीं है। मोक्ष गमन या मुक्ति भी नहीं है। माता-पिता भी नहीं है। पुरुषार्थ भी नहीं है अर्थात् पुरुषार्थ कार्य भी सिद्धि में कारण नहीं है, प्रत्याख्यान त्याग भी नहीं है, भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल नहीं है और न मृत्यु है। अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव भी नहीं है। न कोई ऋषि है, न कोई मुनि है, धर्म और अधर्म का अल्प या अधिक किंचित् भी फल नहीं होता, इसलिए ऐसा जानकर इन्द्रियों के अनुकूल रुचिकर सभी विषयों में प्रवृत्ति करो किसी भी प्रकार के भोग भोगने में परहेज मत करो,
"तम्हा दाण-वय-पोसहाणं तव संजम-बंभचेर-कल्लाणमाइयाण य नत्थि फलं।
"न वि य पाणवहे अलियवयणं। "न चेव चोरिक्ककरणं परदारसेवणं वा। "सपरिग्गहपावकम्मकरणं पि नत्थि किंचि। "न नेरइय-तिरिय-मणुयाणजोणी। "न देवलोको वा अत्थि। "न य अत्थि सिद्धिगमणं। "अम्मा-पियरो नत्थि। "न वि अस्थि पुरिसकारो।
“पच्चक्खाणमवि नत्थि। "न वि अस्थि काल-मच्चूय। "अरहंता चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा नत्थि। "नेवत्थि केइ रिसओ। "धम्माधम्मफलं च नवि अस्थि किंचि बहूयं च थोवगं वा, तम्हा एवं विजाणिऊण जहा सुबहु "इंदियाणुकूलेसु सव्व-विसएसुवट्टह।