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१०२० इड्ढि-रस-सायगारवोहारगहिय-कम्मपडिबद्ध-सत्तकड्ढिज्जमाण-निरयतल-हुत्तसन्न-विसन्नबहुलं,
अरइ-रइ-भय-विसाय-सोग-मिच्छत्त-सेलसंकडं,
अणाइ-संताण-कम्मबंधण-किलेस-चिक्खिल्ल-सुदुत्तारं,
अमर-नर-तिरिय-निरयगइगमण-कुडिल-परियत्तविपुल वेलं,
हिंसालिय-अदत्तादाण-मेहुण-परिग्गहारंभ-करणकारावणाणुमोदण-अट्ठविह-अणिट्ठ-कम्म पिंडितगुरुभारकंत-दुग्गजलोघदूर-निब्बोलिज्जमाण- उम्मग्गनिमग्ग-दुल्लभतलं,
सारीर-मणोमयाणि दुक्खाणि उप्पियंता सायस्स य परितावणमयं, उब्बुड-निब्बुडं करेंता, चउरंत महंतमणवयग्गं, रूद्द संसार सागर
द्रव्यानुयोग-(१) संसार-सागर में ऋद्धिगारव रसगारव और सातागारव रूपी अपहार-जलचर जन्तुविशेष द्वारा पकड़े हुए एवं कर्मबन्ध से जकड़े हुए प्राणी जब नरक रूप पाताल के सम्मुख पहुंचते हैं तो अवसन्न खेदखिन्न और विषण्ण-विषादयुक्त होते हैं ऐसे प्राणियों की बहुलता वाला है। वह अरति, रति, भय, दीनता, शोक तथा मिथ्यात्व रूपी पर्वतों से व्याप्त है। अनादि सन्तान-परम्परा वाले कर्मबंधन एवं राग द्वेष आदि क्लेश रूपी कीचड़ के कारण उस संसार सागर को पार करना अत्यन्त कठिन है। जैसे-समुद्र में ज्वार आते हैं उसी प्रकार संसार समुद्र में देवगति, मनुष्यगति, तिर्यञ्चगति और नरकगति में गमनागमन रूप कुटिल परिवर्तनों से युक्त विस्तीर्ण घेला-ज्वार आते रहते हैं। हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह रूप आरम्भ के करने, कराने और अनुमोदना करने से संचित ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के गुरुतर भार से दबे हुए तथा व्यसन रूपी जलप्रवाह द्वारा दर फेंके गये प्राणियों के लिए इस संसार सागर का तल पाना अत्यन्त कठिन है। इसमें प्राणी शारीरिक और मानसिक दुःखों का अनुभव करते-रहते हैं। संसार सम्बन्धी सुख-दुख से उत्पन्न होने वाले परिताप के कारण वे कभी ऊपर उठने और कभी डूबने का प्रयत्न करते रहते हैं अर्थात् आन्तरिक सन्ताप से प्रेरित होकर प्राणी ऊर्ध्व अधोगति में आने-जाने की चेष्टाओं में संलग्न रहते हैं। समुद्र के चारों दिशाओं में विस्तृत होने के समान यह संसार सागर चार दिशा रूप चार गतियों के कारण विशाल है। यह अन्तहीन और विस्तृत है। जो जीव असंयमी है, उनके लिए यहां कोई आलम्बन नहीं है, कोई आधार नहीं है, यह अप्रमेय है-छद्मस्थ जीवों के ज्ञान से अगोचर है, उसे मापा नहीं जा सकता। चौरासी लाख जीवयोनियों से व्याप्त है। यहां अज्ञानान्धकार छाया रहता है और यह अनन्तकाल तक स्थायी है। यह संसार सागर त्रस्त, अज्ञानी और भयग्रस्त उद्वेगप्राप्त-घबराये हुए दुखी प्राणियों का निवास स्थान है। इस संसार में पापकर्मकारी प्राणी जहां जिस ग्राम कुल आदि की आयु बांधते हैं वहीं पर वे बन्धु-बान्धवों-स्वजनों और मित्रजनों से परिवर्जित-रहित होते हैं, वे सभी के लिए अनिष्टकारी होते हैं। उनके वचनों को कोई ग्राह्य आदेय नहीं मानता और वे दुर्विनीत दुराचारी होते हैं। उन्हें रहने को खराब स्थान, बैठने को खराब आसन, सोने को खराब शय्या और खाने को खराब भोजन मिलता है। वे अशुचि अपवित्र या गंदे रहते हैं अथवा अश्रुति-शास्त्रज्ञान से विहीन होते हैं। उनका संहनन खराब होता है, शरीर प्रमाणोपेत नहीं होता-शरीर का कोई भाग उचित से अधिक छोटा अथवा बड़ा होता है। उनके शरीर की आकृति बेडौल होती है, वे कुरूप होते हैं। उनमें क्रोध, मान, माया और लोभ तीव्र होता है और मोह-आसक्ति की तीव्रता होती है। उनमें धर्मसंज्ञा-धार्मिक समझ-बूझ नहीं होती है। वे सम्यग्दर्शन से रहित होते हैं।
अट्ठियं
अणालंबणम-पइट्ठाणमप्पमेयचुलसीइ जोणिसयसहस्स गुविलं, अणालोकमंधकारं अणंतकालं निच्चं, उत्तत्थ-सुण्ण भव-सण्णसंपउत्ता संसारसागरं वसंति उविग्गवासवसहिं
जहिं आउयं निबंधति पावकम्मकारी बंधवजण-सयण-मित्तपरिवज्जिया अणिट्ठा भवंति,
अणादेज्ज-दुव्विणीया कुठाणासण कुसेज्ज कुभोयणा असुइणो कुसंघयण-कुप्पमाण कुसंठिया कुरूवा।
बहुकोह-माण-माया-लोभ-बहुमोहा,
धम्मसन्न-सम्मत्त-परिभट्ठा,