________________
आश्रव अध्ययन
१०१९
४०.संसार सागरस्स सरूवं
एवं नरग-तिरिय-नर-अमर-गमण-पेरंत-चक्कवालं,
जम्म-जरा-मरण-करण-गंभीर-दुक्ख सलिलं,संजोग-विओग-वीची,
चिंता-पसंग-पसरिय, वह-बंध-महल्ल-विपुलकल्लोलं, कलुण-विलविय लोभ-कल-कलित-बोल-बहुलं
अवमाणण फेणं। तिव्व-खिंसण-पुलपुल-प्पभूय-रोग-वेयण-पराभव-विणिवायफरुस धरिसण-समावडिय कठिणकम्म- पत्थरतरंग रंगतनिच्चमच्चुभय-तोयपटुं
कसाय-पायाल-कलस-संकुलं, भवसयसहस्स जलसंचयं, अणंतं उव्वेयणयं अणोरपारं महब्भयं भयंकरं पइभयं,
४०.संसार सागर का स्वरूप
इस प्रकार नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव गति में गमनागमन करना जिसकी बाह्य परिधि है। जन्म, जरा और मरण के कारण होने वाला गंभीर दुःख ही उसका अत्यन्त क्षुब्ध जल है। उसमें संयोग और वियोग रूपी लहरें उठती रहती हैं। सतत-निरन्तर चिन्ता ही उसका प्रसार-फैलाव है। वध और बन्धन ही उसमें लम्बी लम्बी ऊंची एवं विस्तीर्ण तरंगें हैं। उसमें करुणाजनक विलाप तथा लोभ की कलकलाहट की ध्वनि की प्रचुरता है। अवमानना या तिरस्कार रूपी फेन से व्याप्त है। तीव्र निन्दा, पुनः पुनः उत्पन्न होने वाले रोग, वेदना तिरस्कार, पराभव, अधःपतन, कठोर झिड़कियां जिसके कारण प्राप्त होती है, ऐसे कठोर ज्ञानावरणीय आदि कर्म-रूपी पाषाणों से उठी हुई चंचल तरंगों के समान सदैव बना रहने वाला मृत्यु का भय उस संसार समुद्र के जल का तल है। कषायरूपी पाताल-कलशों से व्याप्त है। लाखों भवों की परम्परा ही उसकी विशाल जलराशि है। वह अनन्त है, उसका कहीं ओर-छोर दृष्टिगोचर नहीं होता है वह उद्वेग उत्पन्न करने वाला और तटरहित होने से अपार है। दुस्तर होने के कारण महान भय रूप है, भय उत्पन्न करने वाला है, उसमें प्रत्येक प्राणी को एक दूसरे के द्वारा उत्पन्न होने वाला भय बना रहता है। जिनकी कहीं कोई सीमा नहीं है, ऐसी विपुल कामनाओं और कलुषित बुद्धि रूपी पवन आंधी के प्रचण्ड वेग के कारण उत्पन्न तथा आशा और पिपासा रूप पाताल समुद्रतल से काम, रति, राग
और द्वेष के बंधन के कारण उत्पन्न विविध प्रकार के संकल्परूपी जल कणों की प्रचूरता से वह अंधकारमय हो रहा है। संसार सागर के जल में प्राणी मोहरूपी भंवरों में भोगरूपी गोलाकार चक्कर लगा रहे हैं, व्याकुल होकर उछल रहे हैं तथा बहुत से गर्भ भीतर के हिस्से में फंसने के कारण ऊपर उछल कर नीचे गिर रहे हैं। इस संसार सागर में इधर-उधर दौड़धाम करते हुए, व्यसनों से ग्रस्त प्राणियों के रुदनरूपी प्रचण्ड पवन से परस्पर टकराती हुई,अमनोज्ञ लहरों से व्याकुल तथा तरंगों से फूटता हुआ एवं चंचल कल्लोलों से व्याप्त जल है। वह प्रमाद रूपी अत्यन्त प्रचण्ड एवं दुष्ट श्वापदों हिंसक जन्तुओं द्वारा सताये गये इधर-उधर घूमते हुए प्राणियों के समूह का विध्वंस करने वाले घोर अनर्थों से परिपूर्ण है। उनमें अज्ञान रूपी भयंकर मच्छ घूमते रहते हैं। अनुपशान्त इन्द्रियों वाले, जीवरूप महामगरों की नयी-नयी उत्पन्न होने वाली चेष्टाओं से वह अत्यन्त क्षुब्ध हो रहा है, उसमें नाना प्रकार के सन्ताप विद्यमान हैं, ऐसा प्राणियों के द्वारा पूर्वसंचित एवं पापकों के उदय से प्राप्त होने वाला तथा भोगा जाने वाला फल रूपी घूमता हुआ चक्कर खाता हुआ जल-समूह है, जो बिजली के समान अत्यन्त चंचल बना रहता है तथा त्राण एवं शरण से रहित है।
अपरिमिय-महिच्छ-कलुसमइ-वाउवेग-उद्धम्ममाणं आसापिवास-पायाल-कामरइ-राग-दोस बंधण-बहुविहसंकप्प-विपुल-दगरथ रयंधकारं।
मोहमहावत्त-भोगभममाण-गुष्पमाणुच्छलत-बहुगब्भवासपच्चोणियत्त-पाणियं, पधाविय-वसण-समावन्न-रुन्न-चंडमारुय-समाहया-ऽमणुन्नवीची वाकुलिय-भग्ग-फुटुंत-निट्टकल्लोल संकुलजलं,
पमाद-बहुचंड-दुट्ठसावय-समाहय-उद्धायमाणग-पूर-घोर विद्धंसणत्थ-बहुलं,
अण्णाण-भमंत-मच्छपरिहत्थं, अनिहुतिंदिय-महामगर-तुरिय-चरिय-खोखुब्भमाण-संतावनिचय-चलंत-चवलचंचल-अत्ताण-असरण पुवकयकम्मसंचयोदिन्नवज्ज-वेइज्जमाण-दुहसय-विपाक-धुन्नत-जलसमूह,