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आश्रव अध्ययन
वक्खारणाइयाइं अब्भक्खाणाइं बहुविहाई पावेंति, अमणोरमाइं हिययमणदूमगाइं जावज्जीवं दुद्धराई।
अणिट्ठ-खर-फरुसवयण-तज्जण-निब्भच्छण दीणवदणविमला-कुभोयणा कुवाससा कुवसहीसु किलिस्संता नेव सुहं नेव निव्वुइं उवलभंति अच्चंत-विपुल-दुक्खसयसंपलित्ता।
एसो सो अलियवयणस्स फलविवाओ इहलोइओ परलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महब्भओ बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चइ न अवेदयित्ता अस्थि हु मोक्खो ति।
एवमाहंसु नायकुलनंदणो महप्पा जिणो उ वीरवरनामधेज्जो
कहेसी य अलियवयणस्स फलविवागं। -पण्ह. आ. २, सु. ५८ २९. मुसावाय वण्णणस्स उवसंहारो
एयं तं बिईयं पि अलियवयणं लहुसग-लहु-चवल-भणियं, भयंकर, दुहकर,अयसकर, वेरकरगं,
१००७ वचनों से अनादर पाते हैं। अमनोरम हृदय और मन को सन्ताप देने वाले तथा जीवनपर्यन्त कठिनाई से मिटने वाले ऐसे अनेक प्रकार के मिथ्या आरोपों को वे प्राप्त करते हैं। अनिष्ट, अप्रिय, तीक्ष्ण, कठोर और मर्मभेदी वचनों से तर्जना, झिडकियों और धिक्कार-तिरस्कार के कारण दीन मुख एवं खिन्न चित्त वाले होते हैं, मृषावाद के परिणामस्वरूप वे खराब भोजन
और मैले कुचैले तथा फटे वस्त्रों वाले होते हैं, उन्हें निकृष्ट बस्ती में क्लेश पाते हुए अत्यन्त एवं विपुल दुःखों की अग्नि में जलना पड़ता है। उन्हें न तो शारीरिक सुख प्राप्त होता है और न मानसिक शान्ति ही मिलती है। मृषावाद का यह (पूर्वोक्त) इस लोक और परलोक सम्बन्धी फल-विपाक है। इस फल-विपाक में सुख का अभाव है और दुःखों की ही बहुलता है। यह अत्यन्त भयानक है और प्रगाढ़ कर्म-रज के बन्ध का कारण है, यह दारुण है, कर्कश है और असातारूप है, सहस्रों वर्षों में इससे छुटकारा मिलता है, फल को भोगे बिना इस पाप से मुक्ति नहीं मिलती है। ज्ञातकुलनन्दन, महान् आत्मा वीरवर महावीर नामक जिनेश्वरदेव
ने मृषावाद का यह फल प्रतिपादित किया है। २९. मृषावाद वर्णन का उपसंहार
यह दूसरा अधर्मद्वार-मृषावाद है। छोटे-तुच्छ और चंचल प्रकृति के लोग इसका प्रयोग करते-बोलते हैं। (महान एवं गम्भीर स्वभाव वाले मृषावाद का सेवन नहीं करते) यह मृषावाद भयंकर है, दुःखकर है, अपयशकर है, वैरकर-वैर का कारण-जनक है। अरति,रति, राग-द्वेष एवं मानसिक संक्लेश को उत्पन्न करने वाला है। यह झूठ, निष्फल, कपट और अविश्वास की बहुलता वाला है। नीच जन इसका सेवन करते हैं। यह नृशंस-निर्दय एवं निघृण है। अविश्वासकारक है-मृषावादी के कथन का कोई विश्वास नहीं करता। परम साधुजनों श्रेष्ठ सत्पुरुषों द्वारा निन्दनीय है। दूसरों को पीड़ा करने वाला और परम कृष्णलेश्या से संयुक्त है। दुर्गति अधोगति में पतन का कारण है, पुनः पुनः भव-भवान्तर का परिवर्तन करने वाला है। चिरकाल से परिचित है-अनादि काल से लोग इसका प्रयोग कर रहे हैं, अतएव अनुगत है-अर्थात् उनके साथ चिपटा हुआ है। इसका अन्त कठिनता से होता है अथवा इसका परिणाम दुःखमय ही होता है। इस प्रकार यह दूसरे अधर्मद्वार मृषावाद का वर्णन है, ऐसा मैं
कहता हूँ। ३०. अदत्तादान का स्वरूप
(श्री सुधर्मा स्वामी ने अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहा-) हे जम्बू ! तीसरा अधर्मद्वार अदत्तादान है, अर्थात् बिना आज्ञा के किसी दूसरे की वस्तु को लेना। यह अदत्तादान दूसरे के पदार्थ का हरण रूप है। हृदय को जलाने वाला है, मरण और भय रूप अथवा मरण भय रूप है, पापमय होने से कलुषित है, त्रास पैदा करने वाला है, दूसरे के धनादि में मूर्छा-लोभ ही इसका मूल है।
अरइ-रइ- राग-दोस-मणसंकिलेस-वियरण अलियं-णियडिसाइजोगबहुलं णीयजणणिसेवियं णिस्संसं अप्पच्चयकारगं
परम-साहुगरहणिज्ज परपीलाकारगं परमकण्हलेस्ससहियं दुग्गइ विणिवाय वड्ढणं पुणब्भवकर चिरपरिचियमणुगयं दुरंत।
बिइयं अहम्मदारं समत्तं, तिबेमि।
-पण्ह.आ.२,सु.५८-५९ ३०. अदिण्णादाणस्स सरूवं
जंबू ! तइयं च अदिण्णादाणं।
हर-दह-मरणभय-कलुस-तासण-परसंतिगऽभिज्जलोभमूलं,