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कालविसमससिय
अहोऽच्छिन्न- तह- पत्थाण-पत्थोइमइयं, अण
छिद्दिमंतर- विहुर-वसण-मग्गण उत्सव मत्त - प्पमत्त ' - पसुत्त वचण विषयण धायण-परं अणिहुय परिणामं तकरजणबहुमयं अकलुणं रायपुरिसरक्खियं ।
सया साहुगरहणिज्ज पियजण मित्तजण-भेव विपिन कारकं, राग-दोसबहुलं, पुणो व उपूर समर संगाम-डमर -कलिकलह-वेह-करणं, दुग्गइविणिवाय वड्ढणं, भवपुणब्भवकरं,
चिरपरिचिय मणुगयं दुरंतं ।
तइयं अहम्मदार
३१. अदिण्णादाणस्स पज्जवणामाणि
अकित्तिकरणं
- पण्ह. आ. ३, सु. ६०
तस्स य णामाणि गोण्णाणि होंति तीसं, तं जहा
१. चोरिक, २. पर, ३. अदत्तं,
४. कूरिकडं, ५. परलाभो, ६. असंजमो,
७. परधणम्मि गेही, ८. लोलिकं ९. तकरत्तणं ति य १०. अवहारो, ११. हत्थलहुत्तणं, १२. पावकम्मकरणं,
१३. तेणिक्कं, १४. हरणविप्पणासो, १५. आदियणा, १६. लुंपणा धणाणं, १७ अपच्चओ, १८. अवीलो, १९. अक्खेवो, २०. खेबो २१. विक्खेवो,
२२. कूडया, २३. कुलमसी य, २४. कंखा, २५. लालप्पणपत्थणा य,
२६. आससणा य वसणं, २७. इच्छा-मुच्छाय, २८. तहागेही २९. नियडिकम्मं ३०. अपरच्छं ति विय
द्रव्यानुयोग - (२) विषमकाल- आधी रात्रि आदि और विषम स्थान - पर्वत, सघन वन आदि स्थानों पर आश्रित है अर्थात् चोरी करने वाले विषम काल और विषम स्थान की तलाश में रहते हैं।
यह अदत्तादान निरन्तर तृष्णाग्रस्त जीवों को अधोगति की ओर ले जाने वाली बुद्धि वाला है, अदत्तादान अपयश का कारण है, अनार्य पुरुषों द्वारा आचरित है।
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यह छिद्र - प्रवेशद्वार, अन्तर अवसर, विधुर - अपाय एवं व्यसनराजा आदि द्वारा दिये जाने वाले दंड आदि का कारण है। उत्सवों, के अवसर पर मदिरा आदि के नशे में बेभान, असावधान तथा सोये हुए मनुष्यों को ठगने वाला, चित्त में व्याकुलता उत्पन्न करने और घात करने में तत्पर है तथा अशान्त परिणाम वाले चोरों द्वारा अत्यन्त मान्य है वह करुणाहीन कृत्य-निर्दयता से परिपूर्ण कार्य है, राजपुरुषों चौकीदार, कोतवाल आदि द्वारा इसे रोका जाता है। सदैव साधुजनों सत्पुरुषों द्वारा निन्दित है प्रियजनों तथा मित्रजनों और अप्रीति उत्पन्न करने वाला है, राग और द्वेष की बहुलता वाला है, यह बहुतायत से मनुष्यों को मारने वाले संग्रामों स्वचक्र-पराचक्र सम्बन्धी डमरों-विप्लवों, लड़ाई-झगड़ों, तकरारों एवं पश्चात्ताप का कारण है। दुर्गति पतन में वृद्धि करने वाला, भव- पुनर्भव बारंबार जन्म मरण कराने वाला है। चिरकाल - सदाकाल से परिचित, आत्मा के साथ लगा हुआ-जीवों का पीछा करने वाला और परिणाम में अन्त में दुःखदायी है। यह तीसरा अधर्मद्वार अदत्तादान है।
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३१. अदत्तादान के पर्यावाची नाम
पूर्वोक्त स्वरूप वाले अदत्तादान के गुणनिष्पन्न यथार्थ तीस नाम हैं,
यथा
१. चौरिक्य- चौरी, २. परहृत-दूसरे के धन का अपहरण, ३. अदत्त - बिना आज्ञा लेना, ४ . क्रूरकृत-क्रूरजनों द्वारा किया जाने वाला, ५. परलाभ-दूसरे की उपार्जित वस्तु लेना, ६. असंयमसंयम विनाश का हेतु, ७. परधनमृद्धि-दूसरे के धन में आसक्ति, ८. लौल्य-लंपटता, ९ तस्करत्व-चौरों का कार्य, १०. अपहारअपहरण, ११. हस्तलघुत्व हस्तलाघव- हाथ की चालाकी, १२. पापकर्म करण- पाप कर्मों का कारण,
१३. स्टेनिका चौरी का कार्य, १४. हरणविनाश दूसरे की वस्तु नष्ट करना, १५. आदान-बिना दिए लेना, १६. धनलुम्पता - दूसरे के धन को गायब करना, १७. अप्रत्यय-अविश्वास का कारण, १८. अवपीड-दूसरे को पीड़ा देने वाला, १९. आक्षेप-दूसरे की वस्तु झपटना, २०. क्षेप-दूसरे की वस्तु छीनना, २१. विक्षेप- दूसरे की वस्तु में हेरा-फेरी करना, २२. कूटता-नाप तोल में बेईमानी करना, २३. कुलमषि - कुल को मलीन करने वाली, २४. कांक्षादूसरे के द्रव्य की अभिलाषा करना, २५. लालपन- प्रार्थना - दूसरे की चीज लेने के लिए प्रार्थना करना,
२६. आससनाय व्यसन-दूसरे की वस्तु नष्ट करने की आदत, २७. इच्छामूर्च्छा-दूसरे के धन के लिए इच्छा व ममत्वभाव रखना, २८. तृष्णा - गृद्धि प्राप्त द्रव्य में आसक्ति व अप्राप्त की आकांक्षा २९. निकृतिकर्म-छल कपट करना, ३०. अपरोक्ष-परोक्ष में किया जाने वाला कार्य ।