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छविच्छेयण अभिओग-पावण-कसंकुसार निवायदमणाणि, वाहणाणिय।
माया-पिइ-विप्पयोग-सोयपरिपीलणाणि य, सत्थऽग्गिविसाभिघाय-गल-गवलावण-मारणाणिय, गलजालुच्छिप्पणाणिय,पउलण-विकप्पणाणिय, जावज्जीविग-बंधणाणि य,पंजरनिरोहणाणि य, सयूहनिघाडणाणि य, धमणाणि य, दोहणाणिय, कुदंडगलबंधणाणि य, वाडगपरिवारणाणि य, पंकजलनिमज्जणाणि य, वारिप्पवेसणाणि य, ओवयणिभंग-विसम-णिवडण-दवग्गि-जाल-दहणाणि य।
एवं ते दुक्खसयसंपलित्ता नरगाओ आगया इह सावसेसकम्मा तिरिक्खपंचेंदिएसु पार्वति पावकारी कम्माणि पमाय-राग-दोस-बहुसंचियाई अईवअस्सायकक्कसाई।
भमर-मसग-मच्छिमाइएसु य जाइकुलकोडिसयसहस्सेहि नवहिं अणूणएहिं चउरिंदियाणं तहिं तहिं चेव जम्मण-मरणाणि अणुहवंता कालं संखेज्जं भमंति नेरइयसमाण-तिव्वदुक्खा फरिस रसण-घाणचक्खुसहिया।
द्रव्यानुयोग-(२) के प्रहार सहन करना, अंगोपांगों को छेद देना, जबर्दस्ती भारवहन आदि कामों में लगाना, चाबुक अंकुश और आर से दमन किया जाना, भार वहन करना आदि दुःखों को सहन करते हैं। (इनके अतिरिक्त इन दुःखों को भी सहन करना पड़ता है) माता-पिता के वियोग शोक से अत्यन्त पीड़ित होना या कान नासिका आदि के छेदन से पीड़ित होना, शस्त्र अग्नि और विष से आघात पहँचना, गले एवं सींगों का मोड़ा जाना, मारा जाना, मछली आदि को गल-काँटे में या जाल में फंसाकर जल से बाहर निकालना, पकाना, काटा जाना,जीवन पर्यन्त बन्धन में रहना, पींजरे में बन्द रखना, अपने समूह से पृथक् किया जाना, अधिक दूध लेने के लिए भैंस आदि को फूंका वायु लगाकर दुहना गले में डंडा बांध देना, जिससे वह भाग न सके, वाड़े में घेर कर रखना, कीचड़ युक्त पानी में डुबोना, जबरन जल में घुसेड़ना, गड्ढे में गिरने से अंग-भंग हो जाना, विषम ऊबड़-खाबड़ मार्ग में गिर पड़ना, दावानल की ज्वालाओं में जल मरना आदि दुःखों को सहन करते हैं। इस प्रकार वे हिंसक जीव सैकड़ों दुःखों से पीड़ित होकर नरकों से आए हुए पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनि को प्राप्त कर प्रमाद राग और द्वेष के कारण बहुत संचित और भोगने से शेष रहे कर्मों के उदय से अत्यन्त, कर्कश असाता वेदनीय कर्मभोग के पात्र बनते हैं। (इनके अतिरिक्त) भ्रमर, मशक-मच्छर मक्खी आदि चतुरिन्द्रियों की पूरी नौ लाख जाति-कुलकोटियों में वारंवार जन्म मरण के दुःखों का अनुभव करते हुए नारकों के समान तीव्र दुःख भोगते हुए स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षु इन्द्रियों से युक्त होकर वे पापी जीव संख्यात काल तक भ्रमण करते रहते हैं। इसी प्रकार कुंथु पिपीलिका-चींटी, अंधिका-दीमक आदि त्रीन्द्रिय जीवों की पूरी आठ लाख कुलकोटियों में पुनः पुनः जन्म मरण करते हुए स्पर्शन रसन और घ्राण इन तीन इन्द्रियों से युक्त होकर नारकों के समान संख्यात काल तक तीव्र दुःख भोगते हैं। गंडूलक-गिंडोला, जलौक-जोंक कृमि चन्दनक आदि द्वीन्द्रिय जीवों की उन-उन पूरी सात लाख कुलकोटियों में जन्म मरण करते हुए स्पर्शन और रसना इन दो इन्द्रियों से युक्त होकर नारकों के समान संख्यात काल तक तीव्र दुःख भोगते हैं। एकेन्द्रियों में उत्पन्न होने पर सूक्ष्म बादर और उनके पर्याप्तअपर्याप्त भेद वाले पृथ्वीकाय, अकाय, तेजस्काय, वायुकाय और प्रत्येक शरीर व साधारण शरीरी वनस्पतिकायिक जीव एक मात्र स्पर्शनेन्द्रिय वाले होकर प्रत्येकशरीरी तो असंख्यात काल तक और अनन्तकायिक (साधारण शरीरी) अनन्तकाल तक अनिष्ट दुःखों को भोगते हैं और परभव में पुनः पुनः वहीं वनस्पतिकाय में जन्म लेते हैं। कुदाल और हल से पृथ्वी का विदारण किया जाना, जल का मथा जाना और निरोध किया जाना, अग्नि तथा वायु का विविध प्रकार के शस्त्रों से घर्षण होना, पारस्परिक आघातों से आहत होना, मारना, निष्प्रयोजन और प्रयोजन से विराधना
तहेव तेइंदिएसु कुंथु-पिपीलिया-अंधिकादिकेसु यजाइकुल-कोडिसयसहस्सेहिं अट्ठहिं अणूणएहिं तेइंदियाणं तहिं-तहिं चेव जम्मण-मरणाणि अणूहवंता कालं संखिज्ज भमंति नेरइयसमाण-तिव्वदुक्खा फरिस-रसण-घाणसंपउत्ता। गंडूलय-जलूय-किमिय-चंदणगमाइएसु य जाइकुलकोडि सयसहस्सेहिं सत्तहिं अणुणएहिं बेइंदियाणं तहिं तहिं चेव जम्मण-मरणाणि अणुहवंता कालं संखिज्जं भमंति नेरइयसमाण-तिव्वदुक्खा फरिस-रसणसंपउत्ता। पत्ता एगिंदियत्तणं पि य पुढवि जल-जलण-मारूयवणप्फइ-सुहुम-बायरं च पज्जत्तमपज्जत्तं पत्तेयसरीरणाम-साहारणं च पत्तेय-सरीरजीविएसु य तत्थ वि कालमसंखिज्जं भमंति अणंतकालं च अणंतकाए फासिंदियभावसंपउत्ता-दुक्ख-समुदयं इमं अणिट्ठ पावंति पुणो-पुणो तहिं-तहिं चेव परभवतरुगणगहणे।
कोद्दाल-कुलिय-दालण-सलिल-मलण-खुंभण-रुंभणअणलाणिल-विविहसत्यघट्टण परोप्पराभिहणण मारणविराहणाणि य अकामकाई परप्पओगोदी-रणाहि य