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तेण दड्ढा संतो रसंति भीमाई विस्सराई रुदंति य, कलुणगाई पारेबयगा इव ।
एवं पलचित -विलाब-कलुणाकंदिय बहुरुन्न रुदियद्दोपरिवेवियरुद्ध-बद्धय-नारकारवसंकुलो णीसिट्ठी । रसिय- भणिय कुविय उक्कइय निरयपालज्जिय। गेण्ड, कम, पहर, छिंद, भिंद उप्पाडेहुक्खणाहि कत्ताहि विकताहि य भुज्जो भंज हण विहण विच्छुभोच्छुभ आकडे विकइड।
किंण जंपसि ?
सराहि पावकम्माई दुक्कयाई।
एवं वयणमहप्पगो डिसुयासद्दसंकुलो तासओ सया निरयगोयराणं महाणगर-डज्झमाण-सरिसो-निग्घोसो सुच्चए अणिट्ठी तहिं नेरइया जाइज्जंताणं जायणाहिं ।
प. किं ते?
उ. असिवण दभवण जंतपत्थर सूइतल वखारवावि कलकलंत वेयरणि
कलंब वालुया - जलियगुहनिरुभणं उसिणोसिणकंटइल्ल-दुग्गमरहजोयण-तत्तलोह-मग्गगमण
वाहणाणि ।
इमेहि विविहेहिं आयुहेहि
प. किते ?
उ. मोग्गर-मुसुंढि-करकय-सत्ति-हल-गय-मुसल- चक्क कोंत तोमर-मूल-लउल- भिंडिमाल सबल पट्टिस चम्मेदुहण-मुट्ठिय-असिखेडग खग्ग-चाव-नाराय - कणगकपिणि वासि परसु टंक- तिक्ख निम्मल ।
अण्णेहि य एवमाइएहिं असुभेहिं वेउव्विएहिं पहरणसएहिं अणुबद्धतिव्यवेरा परोप्परवेयणं उदीरेति अभिहणंता ।
द्रव्यानुयोग - ( २ )
उबलते शीशे से दग्ध होकर वे नारक बुरी तरह चिल्लाते हैं। कबूतर की तरह करुणाजनक फड़फड़ाहट करते हुए खूब रुदन करते हैं- चीत्कार करते हुए आंसू बहाते हैं। विलाप करते हैं, नरकपाल उन्हें रोक लेते हैं, बाँध देते हैं। जब नारक आर्त्तनाद करते हैं, हाहाकार करते हैं, बड़बड़ाते हैं, तब नरकपाल कुपित होकर उच्च ध्वनि से उन्हें धमकाते हैं और कहते हैं - इसे पकड़ो, मारो, प्रहार करो, छेद डालो, भेद डा, मारो पीटो, बार बार मारो पीटो, इसके मुख में गर्मागर्म शीशा उंड़ेल दो, इसे उठाकर पटक दो, उलटा सीधा घसीटो।
नरकपाल फिर फटकारते हुए कहते हैं-बोलता क्यों नहीं ? अपने कृत पापकर्मों और कुकर्मों का स्मरण कर!
इस प्रकार अत्यन्त कर्कश नरकपालों के बोलाचाल की प्रतिध्वनि होती रहती है। जो उन नारक जीवों के लिए सदैव त्रासजनक होती है। जैसे किसी महानगर में आग लगने पर घोर कोलाहल होता है, उसी प्रकार निरन्तर यातनाएँ भोगने वाले नारकों का अनिष्ट निर्घोष वहाँ सुना जाता है।
प्र. वे यातनाएं कैसी होती हैं ?
उ. नारकों को असि वन तलवार की धार के समान पत्तों वाले वृक्षों के वन में चलने को बाध्य किया जाता है, तीखी नोंक वाले डाभ के वन में चलाया जाता है, उन्हें कोल्हू में डाल कर पेरा जाता है, सूई की नोक के समान अतीव तीक्ष्ण कण्टक के सदृश स्पर्श वाली भूमि पर चलाया जाता है, क्षारवापीक्षारयुक्त पानी वाली वापिका बावड़ी में पटक दिया जाता है, उकलते हुए सीसे आदि से भरी वैतरणी नदी में बहाया जाता है।
कदम्बपुष्प के समान अत्यन्त तप्त लाल हुई रेत पर चलाया जाता है, जलती हुई गुफा में बंद कर दिया जाता है, अत्यन्त उष्ण एवं कण्टकाकीर्ण दुर्गम मार्ग में रथ में जोत कर चलाया जाता है, लोहमय उष्ण मार्ग में चलाया जाता है और भारी भार वहन कराया जाता है।
इसके अतिरिक्त जन्मजात वैर के कारण विविध प्रकार के शस्त्रों से परस्पर एक-दूसरे को वेदना उत्पन्न करते रहते हैं। प्र. वे शस्त्र कौन से हैं?
उ. वे शस्त्र हैं-मुद्गर, मुसुद्धि, करवत, शक्ति-त्रिशूल, हल, गदा मूसल, चक्र, भाला तोमर-बाण, शूल, लाठी, भिंडिमालगोफन, सद्धल - विशिष्ट भाला, पट्टिस शस्त्रविशेष, चम्मेचमड़े से लपेटा पत्थर का हथौड़ा, दुषण-वृक्षों को भी गिरा देने वाला शस्त्रविशेष, मौष्टिक-मुष्टिप्रमाण पाषाण, असिखेटकदुधारी तलवार, खड्ग-तलवार, धनुष, बाण, कनक-विशिष्ट बाण, कप्पिणी-कैंची, वसूला - लकड़ी छीलने का औजार, परशु-फरसा और टंक छेनी। ये सभी अस्त्र-शस्त्र तीक्ष्ण और शाण पर चढ़े जैसे चमकदार होते हैं।
इनसे तथा इसी प्रकार के अशुभ विक्रिया से निर्मित शस्त्रों से भी वे नारक परस्पर एक-दूसरे को वेदना की उदीरणा करते रहते हैं।