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आश्रव अध्ययन
कोट-बलिकरण-कोट्टणाणि य, सामलि-तिक्खग्गलोहटकंटक-अभिसरणापसारणाणि, फालणविदारणाणि य, अवकोडगबंधणाणि, लट्ठिसयतालणाणि य गलगंबलुल्लंबणाणि, सूलग्गभेयणाणि य आएसपवंचणाणि खिंसण-विमाणणाणि विघुट्ठपणिज्जणाणि वज्जवज्झसयमाईकाणि य।
एवं ते पुव्वकम्मकयसंचओवतत्ता-निरयग्गिमहग्गिसंपलित्ता गाढदुक्खं महब्भयं कक्कसं असायं सारीरं माणसं च तिव्वं दुविहं वेएंति।
९९५ । देवी के सामने बकरे की बलि के समान उनकी बलि चढ़ाई जाती है, उनके शरीर के खण्ड-खण्ड कर दिए जाते हैं, लोहे के तीखे शूल के समान तीक्ष्ण काँटों वाले शाल्मलिवृक्षों पर उन्हें इधर-उधर घसीटा जाता है, काष्ठ के समान उनकी चीर-फाड़ की जाती है उनके हाथ पैर बाँध दिए जाते हैं। सैकड़ों लाठियों से उन पर प्रहार किए जाते हैं, गले में फंदा डाल कर लटका दिया जाता है। उनके शरीर को शूली के अग्रभाग से भेदा जाता है, झांसा देकर उन्हें ठगा जाता है, उनकी भर्त्सना करके अपमानित किया जाता है। पूर्वकृत पापों की याद दिलाकर उन्हें वधभूमि में घसीट कर ले जाया जाता है, वध्य जीवों के समान सैकड़ों प्रकार के दुःख उन्हें दिए जाते हैं। इस प्रकार वे नारक जीव पूर्व जन्म में किए हुए कर्मों के संचय से सन्तप्त रहते हैं। जाज्वल्यमान अग्नि के समान नरक की तीव्र अग्नि में जलते रहते हैं। वे पापकृत्य करने वाले जीव प्रगाढ़ दुःखमय, घोर भय उत्पन्न करने वाला, अतिशय कर्कश एवं उग्र अशाता रूप शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार की तीव्र वेदना का अनुभव करते हुए रहते हैं। वे पापकारी वेदना को हीन जैसे होकर बहुत पल्योपम और सागरोपम तक सहन करते रहते हैं, वे अपनी आयु पर्यन्त यमकायिक देवों द्वारा त्रास को प्राप्त होते हैं और भयभीत होकर आर्तनाद करते हुए रोते-चिल्लाते हैं।
वेयणं पावकम्मकारी बहूणि पलिओवम-सागरोवमाणिकलुणं पालेंति ते अहाउयं जमकाइयतासिया य सर्द करेंति भीया॥
प. किं ते? उ. अविभाय सामि ! भाय ! बप्प ! ताय ! जितवं! मुय मे,
मरामि दुब्बलो, वाहिपीलिओ अहं किं दाणिऽसि एवं दारुणो निद्दयः!मा देहि मे पहारं।
उस्सासेयं मुहुत्तयं मे देहि, पसायं करेह, मा रुस वीसमामि । गेविज्जं मुयह मे मरामि।
गाढं तण्हइओ अहं देहि पाणियं। हंता ! पिय इमं जलं विमलं सीयलं ति। घेत्तूण य नरयपाला-तवियं तउयं से देंति कलसेण अंजलीसु।
प्र. नारक जीव किस प्रकार आर्तनाद करते हैं ? उ. हे अज्ञात बन्धु ! हे स्वामिन् ! हे भ्राता ! अरे बाप ! हे तात !
हे विजेता ! मुझे छोड़ दो, मै मर रहा हूँ, मैं दुर्बल हूँ, मैं व्याधि से पीड़ित हूँ, आप इस समय क्यों ऐसे दारुण एवं निर्दय हो रहे हैं? मेरे ऊपर प्रहार मत करो। मुहूर्त भर तो सांस लेने दीजिए, दया कीजिए, रोष न कीजिए, मै जरा विश्राम ले लूँ, मेरी गर्दन छोड़ दीजिए, मै मरा जा रहा हूँ। मैं प्यास से पीड़ित हूँ मुझे पानी दीजिए। अच्छा ठीक है, लो यह निर्मल और शीतल जल पीओ। इस प्रकार कहकर नरकपाल (परमाधामी असुर) नारकों को पकड़कर उकला हुआ सीसा कलश द्वारा उनकी अंजुली में उड़ेल देते हैं। उसे देखते ही उनके अंगोपांग कांपने लगते हैं, उनके नेत्रों से
आंसू टपकने लगते हैं और वे कहते हैं-हमारी प्यास शान्त हो गई है। इस प्रकार करुणापूर्ण वचन बोलते हुए भागने के लिए वे इधर-उधर मौका देखते हैं। अन्ततः वे त्राणहीन, शरणहीन, अनाथ, बन्धु विहीन बन्धुओं से वंचित एवं भयभीत हो करके मृग की तरह बड़े वेग से भागते हैं। कोई-कोई निर्दयी यमकायिक उपहास करते हुए इधर-उधर भागते हुए उन नारक जीवों को जबर्दस्ती पकड़कर लोहे के इंडे से उनका मुख फाड़कर उसमें उबलता हुआ शीशा डाल देते हैं और उनको क्षुभित देखकर कई यमकायिक अट्टहास करते हैं।
दठूण य तं पवेवियंगोवंगा, अंसुंपगलंत-पप्पुयच्छा छिण्णा तण्हाइयम्ह कलुणाणि जंपमाणा विपेक्खंता दिसोदिसिं।
अत्ताणा, असरणा, अणाहा, अबंधवा, बंधुविप्पहीणा विपलायंति य मिगा इव वेगेण भयुव्विग्गा।
घेत्तूण बला पलायमाणाणं निरणुकंपा मुहं विहाडेत्तुं लोहडंडेहिं कलकलंण्हं वयणंसि छुब्भंति, केइ जमकाइया हसंता।