________________
आश्रव अध्ययन
दीवित बंधणप्पओग-तप्प-गल-जाल-वीरल्लगायसीदब्भ वाग्गुरा कूडछेलिया, हत्था, हरिएसा, साउणिया य वीदंसग पासहत्था वणचरगा, लद्धगा,
महुघाया, पोतघाया, एणीयारा, पएणीयारा, सर-दहदोहिअ-तलाग-पल्लल-परिगालण-मलण-सोत्तबंधणसलिलासयसोसगा,
विसगललस्स य दायगा, उत्तणवल्लर दवग्गि-णिद्दया पलीवगा कूरकम्मकारी।
इमे य बहवे मिलक्खु जातीया। प. के ते? उ. सक-जवण-सबर-बब्बर-गाय-मुरुंडोद-भडग-तित्तिय
पक्कणिय-कुलक्ख-गोड-सींहल पारस-कोंच-अंध-दविलविल्लल-पुलिंद-अरोस-डोंब पोक्कण-गंधहारग-बहलीयजल्ल-रोम-मास-बउस-मलया-चुंचुया य चूलिया कोंकणगा सेय मेता पण्हव-मालव-महुअर-आभासियअणक्ख-चोण-ल्हासिय-खस-खासिया-नेहुर-मरहट्ठमुट्ठिअ-आरब-डोंबिलग कुहण केकय हूण-रोमगरूरू-मरुया चिलाय विसयवासी य पावमतिणो।
द्वीपिक-बंधन प्रयोग चीतों को साथ रखकर मृगादिकों को मारने व बाँधने का प्रयोग करने वाले, तप्र-मछलियाँ पकड़ने के लिए छोटी नौका में घूमने वाले, गल-काँटे पर आटा या माँस लगाकर मछलियाँ पकड़ने वाले, जाल, वीरल्लक-बाज पक्षी, अयसीदर्भवागुरा-लोहे या दर्भनिर्मित जाल बिछाने वाले, कूटपाश-चीता आदि को पकड़ने के लिए पिंजरे आदि में रखी हुई बकरी को साथ में लेकर फिरने वाले और इन साधनों का प्रयोग करने वाले, हरिकेश-चाण्डल, शाकुनिक चिड़ीमार बाज पक्षी तथा जाल को रखने वाले, वनचर-भील आदि वनवासी, लुब्धक-मांसलोलुपी, मधुघातक-मधु-मुक्खियों का घात करने वाले, पोतघातकपक्षियों के बच्चों का घात करने वाले, एणीयार-मृगों को आकर्षित करने के लिए हरिणियों का पालन करने वाले, पएणीयार-हरिणियों को साथ लेकर घूमने वाले, मत्स्य, शंख आदि प्राप्त करने के लिए सरोवर द्रह वापी, तालाब, पल्वल क्षुद्र जलाशय को खाली करने वाले, पानी निकालकर जल के आगमन का मार्ग रोककर तथा जलाशय को किसी उपाय से सुखाने वाले, विष अथवा गरल अन्य वस्तु में मिले विष को खिलाने वाले, उगे हुए तृण-घास एवं खेत को निर्दयतापूर्वक जलाने वाले ये सब क्रूरकर्मकारी हैं, (जो अनेक प्रकार के प्राणियों का घात करते हैं)
इसी प्रकार की और भी बहुत-सी हिंसक म्लेच्छ जातियाँ हैं। प्र. वे जातियाँ कौन-सी हैं ? उ. शक, यवन,शबर, वब्बर, काय, मुरुंड,उद्र, भडक, तित्तिक,
पक्कीणक, कुलाक्ष, गौड, सिंहल, पारस, क्रौंच, आन्ध्र, द्रविड़, विल्लव, पुलिंद, आरोष, डौंब, पोक्कण, गान्धार, बहुलीक, जल्ल, रोम, मास, बकुश, मलय, चुंचुक, चूलिक, कोंकण, सेत, मेद, पण्हव, मालव, मधुकर आभाषिक, अणक्कत, चोन, ल्हासिक, खव, खासिक, नेहुर, महाराष्ट्र मौष्ट्रिक, आरब, डोंबलिक, कुहण, कैकय, हूण, रोमक, रुरु, मरुक, चिलात, इन देशों के पाप बुद्धि वाले निवासी हिंसा में प्रवृत्त रहते हैं। (पूर्वोक्त विविध देशों और जातियों के लोगों के अतिरिक्त) अन्य जातीय और अन्य देशीय लोग भी जो अशुभ लेश्या परिणाम वाले होते हैं, वे जलचर, स्थलचर, सनखपदसिंह आदि उरग नभश्चर, संडासी जैसी चोंच वाले आदि जीवों का घात करके अपनी आजीविका चलाते हैं। वे संज्ञी, असंज्ञी, पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों का प्राणातिपात-हनन करते हैं। वे पापी जन पाप को ही उपादेय मानते हैं, पाप में ही उनकी बुद्धि रत रहती है, पाप में ही उनकी रुचि-प्रीति होती है, वे प्राणियों का घात करके प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। उनका अनुष्ठान-कर्तव्य प्राणवध करना ही होता है, प्राण वध करना ही उनका एक मात्र कार्य है, प्राणियों की हिंसा की कथा-वार्ताओं में ही वे आनन्द मानते हैं। वे अनेक प्रकार के पापों का आचरण करके संतोष अनुभव करते हैं।
जलयर-थलयर-सणप्पयोरग-खहचर-संडासतोंडजीवोवघायजीवी। सण्णीणो य असण्णिणो य पज्जत्ते अपज्जते य अशुभ लेस-परिणामे एए अण्णे य एवमाई करेंति पाणाइवायकरणं।
पावा, पावाभिगमा, पावरुई, पाणवहकयरई, पाणवहरूवाणुट्ठाणा पाणवहकहासु अभिरमंता तुट्ठा, पावं करेत्तु होति य बहुप्पगारं।
-पण्ह.आ.१.सु.१९-२१