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आश्रव अध्ययन
अत्ताणे, असरणे, अणाहे, अबंधवे कम्मनिगलबद्धे अकुसल-परिणाम-मंदबुद्धिजण-दुव्विजाणए पुढविमए पुढविसंसिए, जलमए जलगए अणलाणिल तणवणस्सइगणनिस्सिए य तम्मयतज्जिए चेव तदाहारे तप्परिणय वण्ण गंध-रस-फास बोंदरूवे।
अचक्खुसे चक्खुसे य, तसकाइए असंखे, थावरकाए य सुहुम-बायर-पत्तेयसरीरनाम-साधारणे अणंते हणंति अविजाणओ य परिजाणओ य जीवे।इमेहिं विविहेहिं कारणेहिं
११. पुढविकाइयाईणं जीवाणं हिंसा कारणानि
प. किं ते? उ. करिसण - पोक्खरिणी - वावि-वप्पिणि-कूव-सर-तलाग
भितिवेदिया-खातिया आराम-विहार-थूभ-पागार-दारगाउर - अट्टालग - चरिया - सेउ-संकम-पासाय विकप्पभवण - घर - सरण - लयण - आवण - चेइय - देवकुलचित्तसभा-पवा-आयतणावसह-भूमिघर-मंडवाण य कए, भायण-भंडोवगरणस्स विविहस्स अट्ठाए पुढविं-हिंसंति मंदबुद्धिया।
९९१ ये प्राणी त्राणरहित हैं-अपनी रक्षा के साधनहीन है, वे अशरण हैं, वे अनाथ हैं, बन्धु-बान्धवों से रहित हैं और बेचारे अपने कृत कर्मों की बेड़ियों से जकड़े हुए हैं। जिनके परिणाम-वृत्तियाँ, अकुशल-अशुभ हैं, मन्दबुद्धि वाले हैं, वे इन प्राणियों को नहीं जानते। वे न पृथ्वीकाय को जानते हैं, न पृथ्वीकाय के आश्रित रहे अन्य स्थावरों एवं त्रस जीवों को जानते हैं उन्हें जलकायिक तथा जल में रहने वाले अन्य त्रस स्थावर जीवों का ज्ञान नहीं है। उन्हें अग्निकाय, वायुकाय, तृण तथा अन्य वनस्पतिकाय के एवं इनके आधार पर रहे हुए अन्य जीवों का परिज्ञान नहीं है। ये प्राणी उन्हीं पृथ्वीकाय आदि के स्वरूप वाले, उन्हीं के आधार से जीवित रहने वाले,
और उन्हीं का आहार करने वाले हैं उन जीवों का वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और शरीर अपने आश्रयभूत पृथ्वी जल आदि सदृश होता है। उनमें से कई जीव नेत्रों से दिखाई नहीं देते हैं और कोई दिखाई देते हैं। ऐसे असंख्य त्रसकायिक जीवों की तथा अनन्त सूक्ष्म, बादर, प्रत्येक शरीर और साधारण शरीर वाले. स्थावरकाय के जीवों की जान-बूझकर या अनजाने इन (आगे कहे जाने
वाले) कारणों से हिंसा करते हैं११. पृथ्वीकायिकादि जीवों की हिंसा के कारण
प्र. वे कारण कौन-से है? उ. कृषि, पुष्करिणी, बावड़ी, क्यारी, कूप, सर, तालाब, भित्ति,
वेदिका, खाई, आराम, विहार-बौद्धभिक्षुओं के ठहरने का स्थान, स्तम्भ, थंभा, प्राकार, द्वार, गोपुर-नगरद्वार, अटारी, चरिका-विशेष मार्ग, सेतु-पुल, संक्रम-उबड़-खाबड़ भूमि को पार करने का मार्ग, प्रासाद, विकल्प, भवन, गृह, सरणझोंपड़ी, लयन-गुफा, आपण दुकान, चैत्य-चबूतरा छतरी और स्मारक, देवकुल-देवालय, चित्रसभा, प्याऊ, आयतनंदेवस्थान, आवसथ-तापसों का स्थान, भूमिगृह, भौंयरातलघर और मंडप आदि के लिए तथा नाना प्रकार के भाजनमात्र भाण्ड-बर्तन आदि एवं उपकरणों के लिए मन्दबुद्धिजन पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा करते हैं। मज्जन-स्नान, पान-पीने, भोजन, वस्त्र धोने एवं शौचस्वच्छता इत्यादि कार्यों के लिए जलकायिक जीवों की हिंसा की जाती है। भोजनादि पकाने, पकवाने, दीपक आदि जलाने तथा प्रकाश करने के लिए अग्निकाय के जीवों की हिंसा की जाती है। सूर्प-सूपड़ा, व्यजन-पंखा, तालवृन्त-ताड़ का पंखा, मयूरपंख आदि, मुख, हथेलियों, सागवान आदि के पत्ते तथा वस्त्र खण्ड आदि से वायुकाय के जीवों की हिंसा की जाती है। अगार-गृह, परिचार-तलवार की म्यान आदि, भक्ष्य-मोदक आदि, भोजन-रोटी वगैरह, शयन-शय्या आदि, आसनबिस्तर आदि, फलक-पाट-पाटिया, मूसल, ओखली, ततवीणा, वितत-ढोल आदि, आतोद्य अनेक प्रकार के वाद्य, वहन-नौका आदि वाहन-रथ गाड़ी आदि, मण्डप अनेक
जलं च मज्जणय-पाण-भोयण-वत्थधोवण-सोयमादिएहिं।
पयण-पयावण-जलावण-विदंसणेहिं अगणिं।
सुप्प-वियण-तालयंट परिथुणक सग्ग-पत्त-वत्थ एवमादिएहिं अणिलं।
पेहुणमुह-करयल
अगार-परियार-भक्ख-भोयण-सयणासण-फलकमुसल-उखल-तत-विततातोज्ज वहण-वाहण-मंडव