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१४. पाणवह फलं
तस्स य पावस्स फलविवागं अयाणमाणा वड्ढति महब्भयं अविस्सामवेयणं दीहकालबहुदुक्खसंकडं नरयतिरिक्खजोणिं।
इओ आउक्खए चुया-असुभकम्मबहुला उववज्जति नरएसु हुलियं महालएसु।
-पण्ह.आ.१,सु.२२
१५. नरगाणं परियओ
तेसु नरगेसु वयरामय-कुड्ड-रुद्द-निस्संधि-दार-विरहियनिमद्दव-भूमितल-खरामरिस-विसम णिरय-घरचारएसु, महोसिण-सयापतत्त दुग्गंध-विस्स-उव्वेयजणगेसु,
बीभच्छ-दरिसणिज्जेसु, निच्चं हिमपडलसीयलेसु, कालोभासेसु य, भीम-गंभीर-लोम-हरिसणेसु णिरभिरामेसु, निप्पडियार-वाहि-रोग-जरापीलिएसु, अईव-निच्चंधकार तिमिस्सेसु पइभएसु ववग्गय-गह-चंद-सूर-णक्खत्त-जोइसेसु, मेय-वसा-मंस-पडल-पोच्चड-पूयरुहिरुक्किण्ण-विलीणचिक्कण-रसिया-वावण्ण-कुहिय-चिक्खल कद्दमेसु,
द्रव्यानुयोग-(२) १४. प्राणवध का फल
पूर्वोक्त मूढ हिंसक लोक हिंसा के फल-विपाक को नहीं जानते हुए अत्यन्त भयानक एवं दीर्घकाल पर्यन्त बहुत से दुःखों से व्याप्त परिपूर्ण एवं अविश्रान्त निरन्तर दुःख रूप वेदना वाली नरकयोनि
और तिर्यञ्चयोनि को बढ़ाते हैं। पूर्ववर्णित हिंसक जन यहाँ-मनुष्यभव का आयुक्षय होने पर मरकर के अशुभ कर्मों की बहुलता के कारण तत्काल विशाल
नरकों में उत्पन्न होते हैं। १५. नरकों का परिचय
उन नरकों की भित्तियाँ वज्रमय हैं, उन भित्तियों में सन्धि-छिद्र और बाहर निकलने के लिए कोई द्वार नहीं है, वहाँ की भूमि कठोर है, उनका स्पर्श खुरदरा है, वे नरक रूपी कारागार विषम हैं। वे नारकावास अत्यन्त उष्ण है एवं सदा तप्त रहते हैं (उनमें रहने वाले) जीव वहाँ दुर्गन्ध के कारण सदैव उद्विग्न रहते हैं। वहाँ का दृश्य अत्यन्त बीभत्स है, शीत प्रधान क्षेत्र होने से सदैव हिम-पटल के सदृश शीतल है। उनकी आभा काली है। वे नरक भयंकर गम्भीर एवं रोंगटे खड़े कर देने वाले हैं। अरमणीय (घृणास्पद) हैं। असाध्य कुष्ठ आदि व्याधियों, रोगों एवं जरा से पीड़ा पहुँचाने वाले हैं। सदा अन्धकार रहने के कारण वे नरकावास अत्यन्त भयानक प्रतीत होते हैं। वहाँ ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र आदि के प्रकाश का अभाव है। मेद, चर्बी, माँस के ढेरों से व्याप्त होने से वह स्थान अत्यन्त घृणाजनक है। पीव और रुधिर बहने से वहाँ की भूमि गीली और चिकनी रहती है और कीचड़-सी बनी रहती है। उष्णता प्रधान क्षेत्र का स्पर्श दहकती हुई करीष की अग्नि का या खैर की अग्नि के समान उष्ण तथा तलवार उस्तरा या करवत की धार के समान तीक्ष्ण है। वहाँ का स्पर्श बिच्छू के डंक से भी अधिक वेदना उत्पन्न करने वाला है। वहाँ के नारक जीव त्राण और शरण से विहीन हैं। वे नरक कटुक दुःखों के कारण घोर परिताप-संक्लेश उत्पन्न करने वाले हैं। वहाँ लगातार दुःखरूप वेदना का अनुभव होता रहता है। तथा परमाधार्मिक (असुरकुमार) यमपुरुषों से व्याप्त हैं। वहाँ उत्पन्न होते ही भवप्रत्ययिक वैक्रिय लब्धि से अन्तर्मुहूर्त में अपने शरीर का निर्माण कर लेते हैं। वह शरीर हुंडक संस्थान बेडौल आकृति वाला, देखने में बीभत्स, घृणित, भयानक, अस्थियों, नसों, नाखूनों और रोमों से रहित अशुभ और दुःखों को सहन करने में समर्थ होता है। शरीर निर्माण हो जाने के बाद पर्याप्तियों को प्राप्त करके पाँचों इन्द्रियों से उज्ज्वल, बलवती, विपुल उत्कट, प्रखर, परुष, प्रचण्ड,
घोर, डरावनी और दारुण अशुभ वेदना का वेदन करते हैं। १६. वेदनाओं का स्वरूप
प्र. वे वेदनाएँ कैसी होती है? उ. नारक जीवों को कटु-कड़ाह और महाकुंभी-संकड़े मुख वाले
घड़े जैसे महापात्र में पकाया और उबाला जाता है, तवे पर रोटी की तरह सेका जाता है, पूड़ी आदि की तरह तला जाता है-चनों की भांति भाड़ में भूजा जाता है, लोहे की कढ़ाई में ईख के रस के समान ओटाया जाता है।
कुकूलानल-पलित्त-जाल-मुम्मुर-असि-क्खुर-करवत्तधारासु निसिय-विच्छुयडंक-निवायोवम्म-फरिस-अइदुस्सहेसु य,
अत्ताणा असरणा कडुय-परितावणेसु, अणुबद्ध निरंतर-वेयणेसु, जमपुरिस-संकुलेसु।
तत्थ य अंतोमुहुत्तलद्धिभवपच्चएणं निव्वत्तेति उ ते सरीरं हुंडं बीभच्छ-दरिसणिज्ज बाहणगं अट्ठि-ण्हारु-णह-रोम-वज्जियं असुभगं दुक्खविसहं।
तओ य पज्जत्तिमुवगया इंदिएहिं पंचहिं वेएंति असुहाए वेयणाए उज्जल-बलविउल-कक्खड-खर-फरुस-पयंड-घोरबीहणग-दारुणाए।
-पण्ह.आ.१,सु. २३-२४ १६. वेयणाणं सरूवं
प. किं ते? उ. कंदु महाकुंभिए पयण-पउलण-तवण-तलण
भट्टभज्जणाणि य,लोहकडाहुक्कढणाणि य,