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द्रव्यानुयोग-(२) करते हुए द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं एकेन्द्रिय जीवों के वध का भी निरूपण किया है। जलचर, स्थलचर, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प और खेचर जीवों का विवरण देते हुए अनेक नामों का उल्लेख किया गया है। इनमें से बहुत से जीव अभी भी उपलब्ध होते हैं और उनके नाम भी वे ही प्रचलित हैं किन्तु कुछ जीव ऐसे भी हैं जिनके नाम बदल गए हैं अथवा उनकी जाति लुप्त हो गई है। जीव-वैज्ञानिकों के लिए जीवों का यह विवरण उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
प्राणियों का वध अनेक कारणों से किया जाता है। उनमें से चमड़ा, चर्बी, मांस, दांत, हड्डी, सींग, विष, बाल आदि की प्राप्ति भी एक कारण है। शरीर एवं उपकरणों को शृंगारित व संस्कारित करने के लिए भी जीवों का वध किया जाता है। पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा कृषि, कूप, तालाब, खाई, प्रासाद आदि के निमित्त से की जाती है। जलकायिक जीवों की हिंसा स्नान, पान, भोजन, वस्त्र धोने आदि के लिए की जाती है। भोजनादि पकाने, दीपक जलाने, प्रकाश करने आदि से अग्निकायिक जीवों की हिंसा होती है। पंखा, सूप, तालवृन्त, मयूरपंख आदि से हवा करने के कारण वायुकायिक जीवों की हिंसा की जाती है। वनस्पतिकायिक की हिंसा के आगम में अनेक प्रयोजन वर्णित हैं जिनमें प्रमुख हैं-घर, भोजन, शय्या, आसन, वाहन, नौका, खम्भा, सभागार, वस्त्र, हल, गाड़ी आदि बनाना।
कुछ सप्रयोजन हिंसा करते हैं तो कुछ निष्प्रयोजन भी हिंसा करते रहते हैं। कुछ ऐसे भी पापी जीव हैं जो हास्य-विनोद के लिए, वैर के कारण अथवा भोगासक्ति से प्रेरित होकर हिंसा करते हैं। कुछ जीव क्रुद्ध होकर हनन करते हैं, कुछ लोभ के वशीभूत होकर हिंसा करते हैं तो कुछ अज्ञान के कारण हिंसा करते हैं। कुछ अर्थ, धर्म या काम के लिए हिंसा करते हैं।
प्राचीनयुग में हिंसा का कार्य करने वालों का समुदाय विशेष हुआ करता था। जैसे-सूअरों का शिकार करने वालों को शौकरिक, मछली पकड़ने वालों को मत्स्यबन्धक, पक्षियों को मारने वालों को शाकुनिक कहा जाता था। हिंसा करने वालों की फिर जातियां बन गई यथा-शक, यवन, शबर, बब्बर आदि। ऐसी अनेक जाति के लोग हिंसाकर्म किया करते थे। आजीविका चलाने के लिए भी हिंसा की जाती रही है। राजा लोग अपने आनन्द के लिए हिंसा करते रहे हैं।
हिंसक मनुष्य हिंसाकार्य के कारण नरकवासी बन जाते हैं। वे मरकर नरक के दुःखों को विवश होकर भोगते हैं। नरकभूमियों, नरकावास एवं उनमें भोगी जाने वाली वेदनाओं का इस अध्ययन में रोंगटे खड़े कर देने वाला चित्रण किया गया है। इसी प्रकार जो हिंसक प्राणी नरक से निकलकर तिर्यञ्च योनि में जाते हैं उन्हें किस प्रकार के दुःखों का अनुभव होता है उसका भी इस अध्ययन में अच्छा चित्रण किया गया है। इन दुःखों एवं वेदनाओं का वर्णन पढ़ने के पश्चात् दिल दहल उठता है तथा पढ़ने वाला हिंसा के लिए कभी प्रवृत्त नहीं हो सकता। कुछ जीव नरक से निकलकर मनुष्य पर्याय में आ जाते हैं किन्तु वे यहाँ विकृत एवं अपरिपूर्ण शरीर प्राप्त कर अवशिष्ट पापकर्म भोगते रहते हैं। वे टेढ़े मेढ़े शरीर वाले, बहरे, अंधे, लंगड़े आदि होते हैं।
मृषावाद का वर्णन करते हुए आगम में अनेक मिथ्यामतों का उल्लेख किया गया है, उनमें चार्वाक, बौद्ध एवं अन्य नास्तिक विचारधारा के मतावलम्बी सम्मिलित हैं। वामलोकवादी मत के अनुसार यह जगत् शून्य है, जीव का अस्तित्व नहीं है, किए हुए शुभ-अशुभ कर्मों का फल भी नहीं मिलता है। यह शरीर उनके मत में पाँच भूतों से बना हुआ है और वायु के निमित्त से सब क्रियाएँ करता है।
बौद्ध आत्मा को रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार इन पाँच स्कन्धों से पृथक् नहीं मानते। कोई बौद्ध इन पांच स्कन्धों के अतिरिक्त मन को भी स्कन्ध मानते हैं। कोई मनोजीववादी अर्थात् मन को ही जीव कहते हैं। कोई वायु को ही जीव स्वीकार करते हैं। कोई जगत् को सादि एवं सान्त मानते हैं तथा पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं करते हैं। उनके अनुसार पुण्यकार्य एवं पापकार्य का कोई फल नहीं मिलता। स्वर्ग, नरक एवं मोक्ष कुछ भी नहीं है।
कुछ मिथ्यावादी लोक को अंडे से उत्पन्न मानते हैं तथा स्वयम्भू को इसका निर्माता मानते हैं। कुछ कहते हैं कि यह जगत् प्रजापति ने बनाया है। किसी के अनुसार यह समस्त जगत् विष्णुमय है। किसी के अनुसार आत्मा एक एवं अकर्ता है। वह नित्य, निष्क्रिय, निर्गुण और निर्लेप है। इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में विभिन्न जैनेतर मान्यताओं को मृषावादी या मिथ्यावादी कहकर प्रस्तुत किया गया है। इनमें कुछ मान्यताएँ वैदिक मान्यताएँ हैं।
कुछ लोग परधन का हरण करने के लिए मृषा बोलते हैं, कुछ राज्यविरुद्ध मिथ्याभाषण करते हैं, अच्छे को बुरा एवं बुरे को अच्छा कार्य बतलाते हैं, सज्जनों को दुष्ट एवं दुष्टों को सज्जन बतलाते हैं। कुछ लोग बिना विचार किए ही असत्य भाषण करते हैं तथा कुछ पाप परामर्शक झूठ बोलते हैं। इस प्रकार अनेक प्रकार के मृषावादी हैं।
मृषावाद का भयंकर फल बताया गया है। मृषावादी जीव नरक एवं तिर्यञ्च योनि की वृद्धि कर अनेक वेदनाओं को भोगते हैं। मृषावाद का फल इहलोक में भी अपयश, वैर, द्वेष आदि के रूप में मिलता है।
अदत्तादान की प्रवृत्ति भी बड़ी घातक है। दूसरों का धन हरण करने की प्रवृत्ति चोरों एवं डाकुओं में ही नहीं राजाओं में भी पायी जाती है। एक राजा दूसरे राजा के धनादि के प्रति आकृष्ट होकर आक्रमण करते रहे हैं। इस प्रकार अदत्तादान के लिए हिंसा का भी सहारा लेना पड़ता है, झूठ का भी सहारा लेना पड़ता है। राजाओं में परस्पर किस प्रकार का बीभत्स युद्ध होता रहा है इसका प्रस्तुत प्रसंग में सुन्दर वर्णन किया गया है। सामुद्रिक व्यापार का वर्णन करने के साथ समुद्र में होने वाली तस्करी का भी चित्र खींचा गया है। ग्राम, नगर आदि में बने घरों में सेंध लगाकर की जाने वाली चोरी का भी इसमें वर्णन हुआ है। चोरों की प्रवृत्तियों का भी वर्णन किया गया है।