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आश्रव अध्ययन : आमुख
कर्मों के आगमन को आश्रव कहते हैं। नव तत्त्वों में आश्रव भी एक तत्त्व है। आश्रव के बिना कर्मों का बंध नहीं होता है। कर्मबंध पर यदि अंकुश लगाना हो तो आश्रव पर अंकुश लगाना आवश्यक है। आश्रव के पाँच द्वार हैं-१. मिथ्यात्व, २. अविरति, ३. प्रमाद, ४. कषाय और ५. योग। आश्रव के इन पाँच द्वारों का उल्लेख स्थानांग सूत्र में हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र में इन पाँचों को बंध का हेतु कहा है। कर्मग्रन्थों में भी ये बन्धहेतुओं के रूप में गिने गए हैं। ५७ बंधहेतुओं में मिथ्यात्व के ५, अविरति के १२, कषाय के २५ एवं योग के १५ भेदों की गणना होती है। आश्रव के द्वार ही एक प्रकार से बंध के हेतु होते हैं क्योंकि आश्रव के बिना बंध नहीं होता है।
आश्रव के २० भेद भी माने गए हैं। वे सब आश्रव के द्वार अथवा कारण होते हैं। २० भेदों में मिथ्यात्व आदि पाँच के अतिरिक्त, प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, अब्रह्म एवं परिग्रह का, श्रोत्रेन्द्रिय आदि पाँच इन्द्रियों से विषय सेवन का, मन, वचन एवं काया को नियन्त्रित न रखने का तथा भंडोपकरण एवं सुई कुशाग्र आदि को अयतना से लेने व रखने का भी समावेश होता है। इस प्रकार आश्रव एक व्यापक तत्त्व है। इसमें उन सभी कारणों का समावेश हो जाता है जिनसे कर्मों का आगमन होता है।
प्रस्तुत अध्ययन में आश्रव के भेदों का निरूपण प्रश्नव्याकरण सूत्र के अनुसार हुआ है। प्रश्नव्याकरण सूत्र में आश्रव के जो पाँच भेद निरूपित हैं, वे हैं-१. हिंसा, २. मृषा, ३. अदत्तादान, ४. अब्रह्म और ५. परिग्रह । संयम अथवा संवर की साधना में आने के लिए इन पाँचों आश्रवों का त्याग करना होता है।
हिंसादि पाँच आश्रवों का इस अध्ययन में विस्तार से निरूपण है किन्तु इस निरूपण में यह नहीं समझाया गया कि हिंसा आदि के कारण कर्माश्रव किस प्रकार एवं क्यों होता है। हिंसा को प्राणवध के रूप में प्ररूपित किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि इस सम्पूर्ण अध्ययन में हिंसादि के द्रव्य-पक्ष को अधिक स्पष्ट किया गया है, भाव-पक्ष को कम।
प्रत्येक आश्रव का स्वरूप स्पष्ट करते हुए उनके तीस-तीस पर्यायवाची नाम दिए गए हैं। वे पर्यायवाची नाम उन आश्रवों के विविध पक्षों को प्रकट करते हुए उनकी द्रव्य एवं भाव सहित सर्वविध व्याख्या कर देते हैं। यथा-हिंसा के पर्यायवाची नामों में अविश्वास, असंयम आदि शब्द हिंसा के भाव-पक्ष को प्रकट करते हैं तो प्राणवध, शरीर से प्राणों का उन्मूलन, मारण आदि शब्द हिंसा के द्रव्य-पक्ष को प्रस्तुत करते हैं। इसी प्रकार प्राणवध का स्वरूप बतलाते हुए उसे पाप, चण्ड, नृशंस, भयोत्पादक आदि शब्दों से प्रकट किया गया है। ये शब्द हिंसा के विविध पक्षों को प्रकट करते हैं।
मृषावाद के पर्यायार्थक जो तीस नाम दिए गए हैं, वे मृषावाद के विभिन्न पक्षों को प्रकट करते हैं यथा-अन्याय, शठ, वंचना आदि शब्द मृषावाद घटित तथ्यों को प्रकट करते हैं। मृषावादी व्यक्ति छली, मायाचारी एवं वक्रता आदि दुर्गुणों से युक्त होता है। मृषावाद के स्वरूप का निरूपण करते हुए प्रतिपादित किया गया है कि यह अलीकवचन या मिथ्या-भाषण दुःखदायक, भयोत्पादक, अपयश एवं वैर उत्पन्न करने वाला होता है। नीच जन मिथ्याभाषण का प्रयोग करते हैं। यह विश्वासघातक, परपीड़ाकारक, रति, अरति, राग-द्वेष एवं मानसिक क्लेश का जनक होता है। इसका फल अशुभ है।
बिना आज्ञा के किसी दूसरे की वस्तु लेना अदत्तादान कहलाता है। दूसरे के धन आदि में मूर्छा या लोभ होना ही इसका कारण है। अदत्तादान अपयश का कारण है तथा इससे अधोगति प्राप्त होती है। इसके तीस पर्यायवाची गुण-निष्पन्न नामों में चौरिक्य, पापकर्म, क्षेप, तृष्णा आदि पद हैं जो चौर्य के ही विभिन्न रूप की व्याख्या करते हैं।
अब्रह्मचर्य को मैथुन, मोह, कामगुण, बहुमान आदि नामों से पुकारा गया है किन्तु ये सब नाम अब्रह्मचर्य की विभिन्न अवस्थाओं एवं परिणामों को व्यक्त करते हैं, एकदम पर्यायवाची नहीं हैं। अब्रह्मचर्य देवों, मनुष्यों और असुरों सहित समस्त लोक के प्राणियों द्वारा काम्य है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद इसके चिह्न हैं। यह तप, संयम और ब्रह्मचर्य के लिए विघ्न रूप है।
तत्त्वार्थसूत्र में मूर्छा को परिग्रह कहा गया है किन्तु इस अध्ययन में परिग्रह के चय, संचय, सम्भार, संरक्षण आदि बाह्य परिग्रह के द्योतक शब्द भी दिए गये हैं और महेच्छा, लोभात्मा, तृष्णा, आसक्ति जैसे आन्तरिक परिग्रह के द्योतक शब्द भी उपलब्ध हैं। ये सब शब्द मिलकर आन्तरिक एवं बाह्य परिग्रह का स्वरूप व्यक्त कर देते हैं। ___ इन पाँच आश्रवों के जो तीस-तीस नाम दिए गए हैं, उनके अन्त में शास्त्रकार ने लिखा है कि ऐसे और भी नाम हो सकते हैं। इसका अभिप्राय है कि ये तीस नाम उस आश्रव के विभिन्न रूपों को अभिव्यक्त मात्र करते हैं, कुछ छूटे हुए रूपों को अन्य नामों से व्यक्त किया जा सकता है। इन नामों में कुछ ऐसे भी नाम हैं जो एक से अधिक आश्रवों में प्रयुक्त हुए हैं। यथा-असंयम शब्द हिंसा या प्राणवध के पर्यायनामों में भी है तो अदत्तादान के पर्याय नामों में भी है।
प्राणवध या हिंसा आश्रव के प्रसंग में यह प्रश्न किया गया कि पापी, असंयत, अविरत, अनुपशान्त परिणाम वाले तथा दूसरों को दुःख देने में तत्पर रहने वाले जीव किनकी हिंसा करते हैं। इस प्रश्न के उत्तर में जलचर, स्थलचर, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प और खेचर जीवों के वध का उल्लेख
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