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उ. गोयमा ! एवं जहेव ओहिओ उद्देसओ तहेव
परंपरोववन्नएसु वि नेरइयाइओ तहेव निरवसेसं भाणियव्यं।
तहेव तियदंडगसंगहिओ। -विया. स.३०, उ.३, सु. १ ८९. अणंतरोववगाढाइसु समोसरणाइ परूवणं
एवं एएणं कमेणं जच्चेव बंधिसए उद्देसगाणं परिवाडी सच्चेव इह पिजाव अचरिमो उद्देसो।
द्रव्यानुयोग-(२) उ. गौतम ! जिस प्रकार सामान्य जीवों का उद्देशक कहा उसी
प्रकार परम्परोपपन्नक नैरयिकादिकों के सभी स्थान सम्पूर्ण कहने चाहिये।
उसी प्रकार तीनों दण्डकों सहित भी कहना चाहिए। ८९. अनन्तरावगाढादि में समवसरणादि का प्ररूपण
इसी प्रकार इस क्रम से बन्धी शतक (२६ वें) में उद्देशकों की जो परिपाटी है, वही चारों समवसरणों की परिपाटी यहाँ भी अचरम उद्देशक पर्यन्त कहनी चाहिए। विशेष-अनन्तरोपपन्नकों के चार उद्देशक एक समान हैं। परम्परोपपन्नकों के भी चार उद्देशक एक समान हैं। इसी प्रकार चरम और अचरम के आलापक भी हैं। विशेष-अलेश्यी, केवली और अयोगी का कथन यहां नहीं कहना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् हैं।
णवर-अणंतरा चत्तारि वि एक्कगमगा, परंपरा चत्तारि वि एक्कगमएणं। एवं चरिमा वि, अचरिमा वि एवं चेव। णवर-अलेस्सी केवली अजोगी न भण्णइ,
सेसं तहेव।
-विया.स.३०, उ.४-११