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क्रिया अध्ययन प. तेउक्काइए णं भंते ! तेउक्काइएहिंतो अणंतरं उव्यट्टित्ता
मणूस-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु उववज्जेज्जा?
उ. गोयमा ! णो इणढे समठे।
एवं जहेव तेउक्काइए णिरंतरं एवं वाउक्काइए वि।
प. (ङ) बेइंदिए णं भंते ! बेइंदिएहितो अणंतर उव्वट्टित्ता
णेरइएसु उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! जहा पुढविक्काइए।
। ९७१ ) प्र. भंते ! तेजस्कायिक जीव तेजस्कायिकों में से निकल कर क्या
अनन्तर (सीधा) मनुष्य वाणव्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिकों में
उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
इसी प्रकार जैसे तेजस्कायिक जीव की निरन्तर उत्पत्ति आदि के लिए कहा उसी प्रकार वायुकायिक के विषय में भी समझ
लेना चाहिए। प्र. () भंते ! द्वीन्द्रिय जीव, द्वीन्द्रिय जीवों में से निकल कर क्या
अनन्तर (सीधा) नारकों में उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! जैसे पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में कहा है, वैसा ही
कहना चाहिए। विशेष-मनुष्यों में उत्पन्न होकर मनःपर्यायज्ञान पर्यन्त ज्ञान प्राप्त कर सकता है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीव भी यावत् मनः
पर्यायज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। प्र. भंते ! जो मनःपर्यायज्ञान प्राप्त करता है तो क्या वह
केवलज्ञान प्राप्त करता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. (च) भंते ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों
में से निकलकर क्या अनन्तर (सीधा) नारकों में उत्पन्न
होता है? उ. गौतम ! कोई उत्पन्न होता है और कोई नहीं होता है।
णवरं-मणूसेसुजाव मणपज्जवणाणं उप्पाडेज्जा।
एवं तेइंदिय-चउरिंदिया वि जाव मणपज्जवणाणं
उप्पाडेज्जा। प. जे णं भंते ! मणपज्जवणाणं उप्पाडेज्जा से णं केवलणाणं
उप्पाडेज्जा? उ. गोयमा ! णो इणठे समझें। प. (च) पंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! पंचेंदिय
तिरिक्खजोणिएहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता णेरइएसु
उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए णो
उववज्जेज्जा। प. जे णं भंते ! उववज्जेज्जा से णं केवलिपण्णत्तं धम्म
लभेज्जा सवणयाए? उ. गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा। प. जे णं केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्जा सवणयाए से णं केवलं
बोहिं बुज्झेज्जा? उ. गोयमा ! अत्थेगइए बुज्झेज्जा, अत्थेगइए नो बुज्झेज्जा।
प. जे णं भंते ! केवलं बोहिं बुज्झेज्जा से णं सद्दहेज्जा
पत्तिएज्जा रोएज्जा? उ. हंता, गोयमा ! सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा। प. जे णं भंते ! सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा से णं ____ आभिणिबोहियणाण-सुयणाण-ओहिणाणाई उप्पाडेज्जा?
प्र. भंते | जो उत्पन्न होता है तो क्या वह केवलिप्ररूपित धर्मश्रवण
का लाभ प्राप्त करता है? उ. गौतम ! कोई लाभ प्राप्त करता है और कोई नहीं करता है। प्र. भंते ! जो केवलि प्ररूपित धर्मश्रवण का लाभ प्राप्त करता है
तो क्या वह केवलबोधि को प्राप्त करता है? उ. गौतम ! कोई केवलबोधि को प्राप्त करता है और कोई नहीं
करता। प्र. भंते ! जो केवलबोधि को प्राप्त करता है तो क्या वह उस पर
श्रद्धा, प्रतीति रुचि करता है? उ. हां, गौतम ! वह उस पर श्रद्धा, प्रतीति, रुचि करता है। प्र. भंते ! जो श्रद्धा-प्रतीति-रुचि करता है तो क्या वह
आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान उपार्जित
करता है? उ. हां, गौतम ! वह उपार्जित करता है। प्र. भंते ! जो आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान
उपार्जित करता है तो क्या वह शील व्रत यावत् पोषधोपवास
अंगीकार करने में समर्थ होता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
इसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में से निकलकर असुरकुमारों में यावत् स्तनितकुमारों में उत्पत्ति के विषय में जानना चाहिए। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में उत्पत्ति का कथन पृथ्वीकायिक जीवों के समान जानना चाहिए। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक और मनुष्यों में उत्पत्ति का कथन नैरयिक के समान जानना चाहिये।
उ. हता, गोयमा ! उप्पाडेज्जा। प. जे णं भंते ! आभिणिबोहियणाण-सुयणाण-ओहिणाणाई
उप्पाडेज्जा से णं संचाएज्जा सीलं वा जाव पोसहोववासं
वा पडिवज्जित्तए? उ. गोयमा ! णो इणठे समठे।
एवं असुरकुमारेसु विजाव थणियकुमारेसु। एगिंदिय-विगलिंदिएसु जहा पुढविकाइए।
पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिएसुमणूसेसुय जहाणेरइए।