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द्रव्यानुयोग-(२)
वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसुजहाणेरइएसु।
एवं मणूसे वि। वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिए जहा असुरकुमारे।
-पण्ण.प.२०, सु. १४१७-१४४३ ७४. कण्ह-नील-काउलेस्सेसु पुढवी-आउ वणस्सइकाइयाणं
अंतकिरिया परूवणंतेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव अंतेवासी मागंदियपुत्ते नामं अणगारे पगइभद्दए' जहा मंडियपुत्ते जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासीप. से नूणं भंते ! काऊलेस्से पुढविकाइए काउलेस्सेहितो
पुढविकाइएहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता माणुसं विग्गह लब्भइ, केवलं बोहिं बुज्झइ, केवलं बोहिं बुज्झित्ता तओ पच्छा सिज्झइ जाव अंतं करेइ?
उ. हंता, मागंदियपुत्ता ! काऊलेस्से पुढविकाइए जाव अंतं
करेइ।
प. से नूणं भंते ! काऊलेस्से आउकाइए काऊलेस्सेहितो
आउकाइएहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता माणुसं विग्गह लब्भइ माणुसं विग्गहं लभित्ता केवलं बोहिं बुज्झइ जाव अंतं करेइ?
वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में उत्पत्ति का कथन नैरयिकों के समान है। इसी प्रकार मनुष्य की भी उत्पत्ति का कथन जानना चाहिए। वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक की उत्पत्ति का कथन
असुरकुमारों के समान है। ७४. कृष्ण-नील-कापोतलेश्यी पृथ्वी-अप-वनस्पतिकायिकों में
अन्तःक्रिया का प्ररूपणउस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी यावत् प्रकृतिभद्र माकन्दिकपुत्र नामक अनगार ने मण्डितपुत्र अनगार के समान यावत् पर्युपासना करते हुए इस प्रकार पूछाप्र. "भंते ! क्या कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक जीव, कापोतलेश्यी
पृथ्वीकायिकजीवों में से मरकर सीधा मनुष्य शरीर को प्राप्त करता है फिर केवलज्ञान उपार्जित करता है, केवलज्ञान उपार्जित करके तत्पश्चात् सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है यावत् सर्व
दुःखों का अन्त करता है? उ. हां, माकन्दिकपुत्र ! वह कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक जीव
यावत् सब दुःखों का अन्त करता है। प्र. भंते ! क्या कापोतलेश्यी अप्कायिक जीव, कापोतलेश्यी
अकायिक जीवों में से मरकर सीधा मनुष्य शरीर को प्राप्त करता है और मनुष्य शरीर प्राप्त करके केवलज्ञान प्राप्त करता है, केवलज्ञान प्राप्त करके यावत् सब दुःखों का अन्त
करता है? उ. हां, माकन्दिकपुत्र ! कापोतलेश्यी अकायिक जीव यावत् सब
दुःखों का अन्त करता है। प्र. भंते ! कापोतलेश्यी वनस्पतिकायिक जीव यावत् सब दुःखों
का अन्त करता है? उ. हां, माकन्दिकपुत्र ! वह भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) यावत् सब
दुःखों का अन्त करता है। प्र. "भंते !' यह इसी प्रकार है, 'भंते !' यह इसी प्रकार है, यों
कहकर माकन्दिकपुत्र अनगार श्रमण भगवान महावीर को यावत् वन्दना नमस्कार करके जहां श्रमण निर्ग्रन्थ थे, वहां आए और उनसे इस प्रकार कहा'हे आर्यों ! कापोतलेश्यी पृथ्वीकायिक जीव पूर्वोक्त प्रकार से यावत् सब दुःखों का अन्त करता है, हे आर्यों ! कापोतलेश्यी अप्कायिक जीव यावत् सब दुःखों का अन्त करता है, हे आर्यों ! कापोतलेश्यी वनस्पतिकायिक जीव यावत् सब दुःखों का अन्त करता है।' तदनन्तर उन श्रमण निर्ग्रन्थों ने माकन्दिकपुत्र अनगार के इस प्रकार कहने यावत प्ररूपणा करने पर इस मान्यता पर श्रद्धा, प्रतीति, रुचि नहीं की और इस पर अश्रद्धा अप्रतीति अरुचि बताते हुए जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी थे वहां आये और वहां आकर उन्होंने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वंदन नमस्कार किया और वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार
उ. हंता मागंदियपुत्ता ! काऊलेस्से आउकाइए जाव अंतं
करेइ। प. से नूणं भंते ! काऊलेस्से वणस्सइकाइए जाव अंतं करेइ।
उ. हंता, मागंदियपुत्ता ! एवं चेव जाव अंत करेइ।
प. सेवं भंते ! सेवं भते त्ति मागंदियपुत्ते अणगारे समणं भगवं
महावीरं जाव वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव समणे निग्गंथे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता समणे निग्गंथे एवं वयासी“एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से पुढविकाइए तहेव जाव अंतं करेइ, एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से आउकाइए जाव अंतं करेइ,
एवं खलु अज्जो ! काउलेस्से वणस्सइकाइए जाव अंतं करेइ, तए णं ते समणा निग्गंथा मागंदियपुत्तस्स अणगारस्स एवं माइक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स एयमलृ णो सद्दहंति, पत्तियंति, रोयंति, एयमट्ठ असद्दहमाणा अपत्तिएमाणा अरोएमाणा जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी