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( ९६८ प. णेरइए णं भंते ! णेरइएहिंतो अणंतर उव्वट्टित्ता
नागकुमारेसु जाव चउरिदिएसु उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! णो इणठे समठे। प. णेरइए णं भंते ! णेरइएहिंतो अणंतर उव्वट्टित्ता
पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिएसु उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए णो
उववज्जेज्जा। प. जे णं भंते ! णेरइएहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता
पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिएसु उववज्जेज्जा से णं
केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्जा सवणयाए? उ. गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा,अत्थेगइए णो लभेज्जा।
द्रव्यानुयोग-(२) प्र. भंते ! नारक जीव नारकों में से निकल कर क्या अनन्तर
(सीधा) नागकुमारों में यावत् चतुरिन्द्रियों में उत्पन्न होता है ? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भंते ! नारक जीव नारकों में से निकलकर क्या अनन्तर
(सीधा) पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होता है ? उ. गौतम ! कोई उत्पन्न होता है और कोई उत्पन्न नहीं होता है।
प. जेणं भंते ! केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्जा सवणयाए से णं
केवलं बोहिं बुज्झेज्जा? उ. गोयमा ! अत्थेगइए बुज्झेज्जा अत्थेगइए णो बुज्झेज्जा।
प. जे णं भंते ! केवलं बोहिं बुज्झेज्जा, से णं सद्दहेज्जा
पत्तिएज्जा रोएज्जा? उ. हता, गोयमा ! सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा। प. जे णं भंते ! सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा से णं ___ आभिणिबोहियणाण-सुयणाणाई उप्पाडेज्जा? उ. हता, गोयमा ! उप्पाडेज्जा। प. जेणं भंते ! आभिणिबोहियणाण-सुयणाणाई उप्पाडेज्जा
से णं संचाएज्जा सीलं वा वयं वा गुणं वा वेरमणं वा
पच्चक्खाणं वा पोसहोववासंवा पडिवज्जित्तए? उ. गोयमा ! अत्थेगइए संचाएज्जा, अत्थेगइए णो
संचाएज्जा। प. जे णं भंते ! संचाएज्जा सीलं वा जाव पोसहोववासं वा
पडिवज्जित्तए से णं ओहिणाणं उप्पाडेज्जा? उ. गोयमा ! अत्थेगइए उप्पाडेज्जा, अत्थेगइए णो
उप्पाडेज्जा। प. जेणं भंते ! ओहिणाणं उप्पाडेज्जा, से णं संचाएज्जा मुंडे
भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए?
प्र. भंते ! जो नारक नरकों में से निकल कर अनन्तर (सीधा)
पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों में उत्पन्न होता है तो क्या वह
केवलिप्ररूपित धर्म श्रवण का लाभ प्राप्त करता है? उ. गौतम ! कोई धर्मश्रवण का लाभ प्राप्त करता है और कोई नहीं
करता है। प्र. भंते ! जो केवलि-प्ररूपित धर्मश्रवण का लाभ प्राप्त करता है
क्या वह केवलबोधि को प्राप्त करता है? उ. गौतम ! कोई केवलबोधि को प्राप्त करता है और कोई नहीं
करता है। प्र. भंते ! जो केवल-बोधि को प्राप्त करता है तो क्या वह उस पर
श्रद्धा प्रतीति रुचि करता है? उ. हां, गौतम ! वह उस पर श्रद्धा प्रतीति रुचि करता है। प्र. भंते ! जो श्रद्धा, प्रतीति रुचि करता है क्या वह
आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान उपार्जित करता है ? उ. हां, गौतम ! वह उपार्जित करता है। प्र. भंते ! जो आभिनिवोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान का उपार्जन
करता है, क्या वह शील,व्रत, गुण, विरमण,प्रत्याख्यान और
पौषधोपवास अंगीकार करने में समर्थ होता है? उ. गौतम ! कोई अंगीकार करने में समर्थ होता है और कोई नहीं
होता।
पर
प्र. भंते ! जो शील यावत् पौषधोपवास अंगीकार करने में समर्थ
होता है क्या वह अवधिज्ञान उपार्जित करता है? उ. गौतम ! कोई उपार्जित करता है और कोई नहीं करता है।
प्र. भंते ! जो अवधिज्ञान उपार्जित करता है तो क्या वह मुण्डित
होकर गृह त्यागकर अनगार धर्म में प्रव्रजित होने में समर्थ
होता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र. भंते ! नारक जीव नारकों में से निकलकर क्या अनन्तर
(सीधा) मनुष्यों में उत्पन्न होता है? उ. गौतम ! कोई उत्पन्न होता है और कोई उत्पन्न नहीं होता है।
उ. गोयमा ! णो इणढे समठे। प. णेरइए णं भंते ! णेरइएहिंतो अणंतर उव्वट्टित्ता मणूसेसु
उववज्जेज्जा? उ. गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए णो
उववजेज्जा। प. जे णं भंते ! उववज्जेज्जा से णं केवलिपण्णत्तं धम्म
लभेज्जा सवणयाए? उ. गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा,अत्थेगइएणो लभेज्जा।
जहा पंचेंदिय-तिरिक्खजोणिएसुतहा मणुस्सेसु जाव
प्र. भंते ! जो उत्पन्न होता है, क्या वह केवलिप्ररूपित धर्मश्रवण
का लाभ प्राप्त करता है? उ. गौतम ! कोई लाभ प्राप्त करता है और कोई नहीं करता।
जैसे पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों के विषय में कहा उसी प्रकार मनुष्यों के लिए भी कहना चाहिए यावत्