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८७६ ३६. लेसाणुसारेणं जीवाणं नाणभेया
प. कण्हलेस्से णं भंते ! जीवे कइसु णाणेसु होज्जा? उ. गोयमा ! दोसुवा, तिसुवा, चउसु वा णाणेसु होज्जा।
दोसु होमाणे-आभिणिबोहिय, सुयणाणेसु होज्जा, तिसु होमाणे-आभिणिबोहिय-सुयणाण-ओहिणाणेसु होज्जा, अहवा तिसु होमाणे- आभिणिबोहिय - सुयणाण - मणपज्जवणाणेसु होज्जा, चउसु होमाणे-आभिणिबोहिय-णाण-सुयणाणओहिणाण-मणपज्जवणाणेसु होज्जा एवं जाव पम्हलेस्से। प. सुक्कलेस्सेणं भंते ! जीवे कइसु णाणेसु होज्जा? उ. गोयमा ! दोसु वा, तिसु वा, चउसु वा, एगम्मि वा होज्जा,
दोसु होमाणे-आभिणिबोहिय-सुयणाणेसु होज्जा, एवं जहेव कण्हलेस्साणं तहेव भाणियव्वं जाव चउहिं।
द्रव्यानुयोग-(२) ३६. लेश्या के अनुसार जीवों में ज्ञान के भेद
प्र. भंते ! कृष्णलेश्या वाले जीव में कितने ज्ञान होते हैं ? उ. गौतम ! दो, तीन या चार ज्ञान होते हैं।
यदि दो ज्ञान हों तो अभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं। यदि तीन ज्ञान हों तो आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान होते हैं। अथवा तीन ज्ञान हो तो आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान और मनःपर्यवज्ञान होते हैं। यदि चार ज्ञान हों तो आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान होते हैं।
इसी प्रकार पद्मलेश्या पर्यन्त कथन करना चाहिए। प्र. भंते ! शुक्ललेश्या वाले जीव में कितने ज्ञान होते हैं ? उ. गौतम ! दो, तीन, चार या एक ज्ञान होता है।
यदि दो ज्ञान हों तो आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं, इसी प्रकार जैसे कृष्णलेश्या वालों का कथन किया उसी प्रकार चार ज्ञान तक कहना चाहिए। यदि एक ज्ञान हो तो एक केवलज्ञान ही होता है।
एगम्मि होमाणे एगम्मि केवलणाणे होज्जा।
-पण्ण.प.१७,उ.३.सु.१२१६-१२१७ ३७. लेसाणुसारेणं नेरइयाणं ओहिनाण खेत्तंप. कण्हलेस्से णं भंते ! णेरइए कण्हलेस्से णेरइयं पणिहाए
ओहिणा सव्वओ समंता समभिलोएमाणे-समभिलोएमाणे केवइयं खेत्तं जाणइ, केवइयं खेत्तं पासइ? उ. गोयमा ! णो बहुयं खेत्तं जाणइ, णो बहुयं खेत्तं पासइ, णो
दूरं खेत्तं जाणइ, णो दूरं खेत्तं पासइ, इत्तिरियमेव खेत्तं जाणइ, इत्तिरियमेव खेत्तं पासइ।
प. सेकेणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ__ "कण्हलेस्से णं णेरइए णो बहुयं खेत्तं जाणइ जाव
इत्तिरियमेव खेत्तं पासइ?" उ. गोयमा ! से जहाणामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिज्जसि
भूमिभागंसि ठिच्चा सव्वओ समंता समभिलोएज्जा, तए णं से पुरि से धरणितलगयं पुरिसं पणिहाए सव्वओ समंता समभिलोएमाणे-समभिलोएमाणे णो बहुयं खेत्तं जाणइ, णो बहुयं खेत्तं पासइ, इत्तरियमेव खेत्तं जाणइ, इत्तिरियमेव खेत्तं पासइ, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ"कण्हलेस्से णं णेरइए णो बहुयं खेत्तं जाणइ जाव
इत्तिरियमेव खेत्तं पासइ।" प. णीललेसे णं भंते ! णेरइए कण्हलेस्सं णेरइयं पणिहाय
ओहिणा सव्वओ समंता समभिलोएमाणे-समभिलोएमाणे केवइयं खेत्तं जाणइ, केवइयं खेत्तं पासइ? उ. गोयमा ! बहुतरागं खेत्तं जाणइ, बहुतरागं खेत्तं पासइ,
दूरतरागं खेत्तं जाणइ, दूरतरागं खेत्तं पासइ, वितिमिरतरागं खेत्तं जाणइ, वितिमिरतरागं खेत्तं पासइ, विसुद्धतरागं खेतं जाणइ, विसुद्धतरागं खेतं पासइ।
३७. लेश्या के अनुसार नैरयिकों में अवधिज्ञान क्षेत्रप्र. भंते ! कृष्णलेश्यी नैरयिक कृष्णलेश्यी अन्य नैरयिक की
अपेक्षा अवधिज्ञान के द्वारा चारों ओर अवलोकन करता हुआ कितने क्षेत्र को जानता और देखता है ? उ. गौतम ! न अधिक क्षेत्र को जानता है और न अधिक क्षेत्र को
देखता है, न दूरवर्ती क्षेत्र को जानता है और न दूरवर्ती क्षेत्र को देखता है वह थोड़े-से क्षेत्र को जानता है और थोड़े से क्षेत्र
को देखता है। प्र. भंते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
"कृष्णलेश्यी नैरयिक अधिक क्षेत्र को नहीं जानता है यावत्
थोड़े से ही क्षेत्र को देख पाता है?" उ. गौतम ! जैसे कोई पुरुष अत्यन्त सम एवं रमणीय भू-भाग पर स्थित होकर चारों ओर देखे, तो वह पुरुष भूतल पर स्थित पुरुष की अपेक्षा से सभी दिशाओं-विदिशाओं में बार-बार देखता हुआ न अधिक क्षेत्र को जानता है और न अधिक क्षेत्र को देख पाता है यावत् थोड़े से क्षेत्र को जानता है और थोड़े से क्षेत्र को देख पाता है। इस कारण से, गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि"कृष्णलेश्यी नैरयिक अधिक क्षेत्र को नहीं जानता है यावत्
थोड़े से ही क्षेत्र को देख पाता है।" प्र. भंते ! नीललेश्या वाला नारक कृष्णलेश्या वाले नारक की
अपेक्षा चारों ओर अवधि ज्ञान के द्वारा देखता हुआ कितने
क्षेत्र को जानता और कितने क्षेत्र को देखता है? उ. गौतम ! अत्यधिक क्षेत्र को जानता है और अत्यधिक क्षेत्र को
देखता है, बहुत दूर वाले क्षेत्र को जानता है और बहत दर वाले क्षेत्र को देखता है, स्पष्ट रूप से क्षेत्र को जानता है और स्पष्ट रूप से क्षेत्र को देखता है, विशुद्ध रूप से क्षेत्र को जानता है और विशुद्ध रूप से क्षेत्र को देखता है।