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द्रव्यानुयोग-(२) जिन जीवों के शरीरों से लोहा बना है, संडासी बनी है, घन बना है, हथौड़ा बना है, एरण बनी है, एरण की लकड़ी बनी है, कुण्डी बनी है और लोहारशाला बनी है। वे जीव भी कायिकी यावत् प्राणातिपातिकी इन पांचों क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं।
जेसि पि य णं जीवाणं सरीरेहिंतो अए निव्वत्तिए, संडासए निव्वत्तिए, घम्मठे निव्वत्तिए, मुट्ठिए निव्वत्तिए, अहिगरणी निव्वत्तिया, अहिगरणिखोडी निव्वत्तिया, उदगदोणी निव्वत्तिया, अहिगरणसाला निव्वत्तिया, ते वि य णं जीवा काइयाए जाव पाणाइवाय किरियाएपंचहिं किरियाहिं पुट्ठा।
-विया.स.१६, उ.१, सु.७-८ ३२. वासं परिक्खमाण पुरिसस्स किरियापरूवणंप. पुरिसे णं भंते ! वासं वासइ, वासं नो वासईत्ति हत्थं वा,
पायं वा, बाहुं वा, उरूं वा, आउंटावेमाणे वा, पसारेमाणे
वा कइ किरिए? उ. गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे वासं वासइ, वासं नो वासई
त्ति हत्थं वा जाव उरूं वा, आउंटावेइ वा, पसारेइ वा तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पाणाइवायकिरियाए
पंचहिं किरियाहिं पुढे। -विया. स. १६, उ.८, सु. १४ ३३. पुरिस आस हथिआइ हणमाणे अन्न जीवाण वि
हण्णपरूवणंप. पुरिसे णं भंते ! पुरिसं हणमाणे किं पुरिसं हणइ, नोपुरिसं
हणइ?
उ. गोयमा ! पुरिसं पि हणइ, नोपुरिसे वि हणइ।
प. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ___'पुरिसं पि हणइ, नोपुरिसे वि हणइ ?'
उ. गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ
‘एवं खलु अहे एगं पुरिसं हणामि' से णं एगं पुरिसं हणमाणे अणेगे जीवे हणइ। से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ'पुरिसं पि हणइ, नोपुरिसे वि हणइ।' प. पुरिसे णं भंते ! आसं हणमाणे किं आसं हणइ, नो आसे
वि हणइ,
३२. वर्षा की परीक्षा करने वाले पुरुष की क्रियाओं का प्ररूपणप्र. भंते ! वर्षा बरस रही है या नहीं बरस रही है ?--यह जानने
के लिए कोई पुरुष अपने हाथ, पैर, बाहु या उरू (पिंडली) को
सिकोडे या फैलाए तो उसे कितनी क्रियाएं लगती हैं ? उ. गौतम ! वर्षा बरस रही है या नहीं बरस रही है? यह जानने
के लिए कोई पुरुष अपने हाथ यावत् उरू को सिकोड़ता है या फैलाता है तब वह पुरुष कायिकी यावत् प्राणातिपातिकी इन
पांचों क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। ३३. पुरुष अश्व हस्ति आदि को मारते हुए अन्य जीवों के भी हनन
का प्ररूपणप्र. भन्ते ! कोई पुरुष, पुरुष की घात करता हुआ पुरुष की ही
घात करता है या नोपुरुष (पुरुष के सिवाय अन्य जीवों) की
भी घात करता है? उ. गौतम ! वह (पुरुष) पुरुष की भी घात करता है और नोपुरुष
की भी घात करता है। प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
'वह पुरुष की भी घात करता है और नोपुरुष की भी घात
करता है?' उ. गौतम ! घातक के मन में ऐसा विचार होता है कि
'मैं एक ही पुरुष को मारता हूँ,' किन्तु वह एक पुरुष को मारता हुआ अन्य अनेक जीवों को भी मारता है। इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि
'वह पुरुष को भी मारता है और नोपुरुष को भी मारता है।' प्र. भन्ते ! कोई पुरुष अश्व को मारता हुआ क्या अश्व को ही
मारता है या नो अश्व (अश्व के सिवाय अन्य जीवों को भी)
मारता है? उ. गौतम ! वह (अश्वघातक) अश्व को भी मारता है और नो
अश्व (अश्व के अतिरिक्त दूसरे जीवों) को भी मारता है। ऐसा कहने का कारण पूर्ववत् समझना चाहिए। इसी प्रकार हाथी, सिंह, व्याघ्र, चित्रल पर्यन्त मारने के संबंध
में समझना चाहिए। प्र. भन्ते ! कोई पुरुष किसी एक त्रसप्राणी को मारता हुआ क्या
उस त्रसप्राणी को मारता है या उसके सिवाय अन्य त्रस
प्राणियों को भी मारता है? उ. गौतम ! वह उस त्रसप्राणी को भी मारता है और उसके सिवाय
अन्य त्रसप्राणियों को भी मारता है। प्र. भन्ते ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि
उ. गोयमा ! आसं पि हणइ, नो आसे वि हणइ।
से केणढेणं अट्ठो तहेव। एवं हत्थिं, सीहं, वग्धंजाव चिल्ललगं,
प. पुरिसे णं भंते ! अन्नयरं तसपाणं हणमाणे किं अन्नयरं
तसपाणं हणइ, नो अन्नयरे तसे पाणे हणइ?
उ. गोयमा ! अन्नयरं पि तसपाणं हणइ, नो अन्नयरे वि तसे
पाणे हणइ। प. से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ