________________
( ९४० ।
एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियव्या, जहा पाणाइवाए तहा जाव मिच्छादसणल्ले। एवं एए अट्ठारस पावट्ठाणे चउ वीसं दंडगा भाणियव्या।
-विया.स.१,उ.६,सु.७-११ ५४. जीव-चउवीसदंडएसु पावकिरिया विरमण परूवणं
द्रव्यानुयोग-(२) एकेन्द्रियों के विषय में सामान्य जीवों के समान कहना चाहिए। प्राणातिपात क्रिया के समान मिथ्यादर्शनशल्य पर्यन्त इन अठारह पापस्थानों के विषय में चौबीस दण्डक कहने चाहिए।
प. अत्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवायवेरमणे कज्जइ? उ. हता, गोयमा ! अत्थि। प. कम्हि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवायवेरमणे कज्जइ?
उ. गोयमा !छसु जीवणिकाएसु।
प. दं.१.अस्थि णं णेरइयाणं पाणाइवायवेरमणे कज्जइ?
उ. गोयमा ! णो इणठे समठे।
दं.२-२४ एवं जाव वेमाणियाणं। णवरं-मणूसाणं जहा जीवाणं।
एवं मुसावाएणं जाव मायामोसेणं जीवस्स य मणूसस्स य,
५४. सामान्य जीव और चौबीस दण्डकों में पाप क्रियाओं का
विरमण प्ररूपणप्र. भंते ! क्या जीवों द्वारा प्राणातिपात विरमण किया जाता है? उ. हाँ, गौतम ! किया जाता है। प्र. भंते ! किस विषय में जीवों का प्राणातिपात विमरण किया
जाता है? उ. गौतम ! छह जीव निकायों के विषय में (प्राणातिपात विरमण)
किया जाता है। प्र. दं.१. भंते ! क्या नैरयिकों द्वारा प्राणातिपात विरमण किया
जाता है? उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
दं. २-२४.इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त जानना चाहिए। विशेषः-मनुष्यों में (प्राणातिपात विरमण) सामान्य जीवों के समान कहना चाहिए। इसी प्रकार मृषावाद से मायामृषावाद पर्यन्त सामान्य जीव
और मनुष्य का विरमण कहना चाहिए। शेष दण्डकों में (प्राणातिपात विरमण) नहीं किया जाता। विशेषः-अदत्तादान विरमण ग्रहण और धारण करने योग्य द्रव्यों के विषय में होता है। मैथुन-विरमण अनेक रूपों में या रूपसहगत द्रव्यों के विषय में होता है।
शेष पापस्थानों से विरमण सर्वद्रव्यों में होता है। प्र. भंते ! क्या जीवों द्वारा मिथ्यादर्शनशल्य से विरमण किया
जाता है? उ. हाँ, गौतम ! किया जाता है। प्र. भंते ! किस विषय में जीवों का मिथ्यादर्शनशल्य से विरमण
किया जाता है? उ. गौतम ! सर्वद्रव्यों के विषय में होता है।
इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिक पर्यन्त (मिथ्यादर्शनशल्य से विरमण) का कथन करना चाहिए। विशेषः-एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में यह नहीं होता है।
सेसाणं णो इणढे समढे। णवर-अदिण्णादाणे गहण-धारणिज्जेसु दव्वेसु,
मेहुणे रूवेसुवा, रूवसहगएसुवा दब्वेसु,
सेसाणं सव्वदव्वेसु। प. अस्थि णं भंते ! जीवाणं मिच्छादसणसल्लवेरमणे
कज्जइ? उ. हंता, गोयमा ! अत्थि। प. कम्हिणं भंते ! जीवाणं मिच्छादसणसल्लवेरमणे कज्जइ?
उ. गोयमा ! सव्वदव्वेसु।
एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं।
णवर-एगिदिय-विगलिंदियाणं णो इणठे समझें।
-पण्ण.प.२२,सु.१६३७-१६४१ ५५. किरिया ठाणस्स दुविहा पक्खा
सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायंइह खलु किरियाठाणे णामऽज्झयणे तस्स णं अयमठेइह खलु संजूहेणं दुवे ठाणा एवमाहिज्जंति, तं जहा१. धम्मे चेव,
२. अधम्मे चेव, १. उवसंते चेव, २. अणुवसंते चेव।
-सूय. सु. २, अ. २, सु.६९४
५५. क्रिया स्थान के दो पक्ष
हे आयुष्मन् ! मैंने सुना उन भगवान् ने इस प्रकार कहा कियहाँ "क्रिया स्थान" नामक अध्ययन है उसका अर्थ यह हैइस लोक में संक्षेप में दो स्थान इस प्रकार कहे जाते हैं, यथा१. धर्म स्थान
२. अधर्म स्थान, अथवा-१. उपशान्त स्थान २. अनुपशान्त स्थान।