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सुवण्णा वेगे, दुव्वण्णा वेगे, सुरूवा वेगे, दुरूवा वेगे, तेसिंच णं खेत्तवत्थूणि परिग्गहियाणि भवंति। एसो आलावगो तहा णेयव्यो जहा पोंडरीए जाव सव्वोवसंता सव्वयाए परिनिव्वुडे त्ति बेमि।
द्रव्यानुयोग-(२) कुछ गोरे होते हैं और कुछ काले, कुछ सुडौल होते हैं और कुछ कुडौल उनके भूमि और घर परिगृहीत होते हैं, ये आलापक पोंडरीक के समान जानना चाहिए यावत् जो समस्त कषायों से उपशान्त हैं और समस्त भोगों से निवृत्त हैं (वे धर्मपक्षीय हैं) ऐसा मैं कहता हूँ। यह स्थान आर्य, द्वन्द्वरहित यावत् सब दुःखों के क्षय का मार्ग, एकान्त सम्यक् और श्रेष्ठ है। इस प्रकार दूसरे स्थान धर्मपक्ष का विकल्प निरूपित है।
एस ठाणे आरिए केवले जाव सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे एगंतसम्मे
साहू।
दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए।
-सुय. सु. २, अ.२, सु.७११ तत्थ णं जे ते समण-माहणा एवं आइक्खंति जाव एवं परूवेंति"सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता ण हंतव्वा,ण अज्जावेयव्वा,ण परिघेत्तव्वा, ण परितावेयव्वा, ण किलामेयव्वा, ण उद्देवेयव्वा
जो ये श्रमण-ब्राह्मण ऐसा आख्यान यावत् ऐसा प्ररूपण करते हैं कि"सब प्राण यावत् सब सत्वों का हनन नहीं करना चाहिए, अधीन नहीं बनाना चाहिए, दास नहीं बनाना चाहिए, परिताप नहीं देना चाहिए, क्लान्त नहीं करना चाहिए और प्राणों से वियोजित नहीं करना चाहिए। वे भविष्य में शरीर के छेदन भेदन को प्राप्त नहीं होंगे। वे भविष्य में जन्म, जरा, मरण, योनिजन्म, संसार में बार-बार उत्पन्न, गर्भवास, भवप्रपंच में व्याकुलचित्त वाले नहीं होंगे। वे बहुत दंड यावत् अनेक दुःख व वैमनस्य के भागी नहीं होंगे।
ते णो आगंतु छेयाए, ते णो आगंतु भेयाए, ते णो आगंतुं जाइ जरा-मरण-जोणि-जम्मण-संसारपुणब्भवगब्भवास-भवपवंच कलंकलीभागिणो भविस्संति। ते णो बहूणं दंडणाणं जाव णो बहूणं दुक्खदोमणसाणं आभागिणो भविस्संति। अणादियं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं भुज्जो-भुज्जो णो अणुपरियटिस्संति। ते सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति।
-सुय. सु. २, अ.२, सु.७२० ६४. धम्मबहुल मिस्सठाणस्स सरूव परूवणं
अहावरे तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिज्जइइह खलु पाईणं वा जाव दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहाअप्पिच्छा, अप्पारंभा, अप्पपरिग्गहा, धम्मिया धम्माणुया जाव धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति,
वे अनादि-अनन्त लंबे मार्ग वाले, चातुर्गतिक संसाररूपी अरण्य में बार-बार परिभ्रमण नहीं करेंगे। वे सिद्ध होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे।
६४. धर्म बहुल मिश्र स्थान के स्वरूप का प्ररूपण
अब तीसरे स्थान मिश्रकपक्ष का विकल्प इस प्रकार कहा जाता हैपूर्व यावत् दक्षिण दिशा में कई मनुष्य ऐसे होते हैं, यथा
वे अल्प इच्छा वाले, अल्प आरम्भ वाले, अल्प परिग्रह वाले, धार्मिक, धर्म का अनुगमन करने वाले यावत् धर्म के द्वारा आजीविका करने वाले होते हैं। वे सुशील, सुव्रत, सुप्रत्यानन्द सुसाधु हैं। वे यावज्जीवन कुछ प्राणातिपात से विरत हैं और कुछ से अविरत हैं यावत् यावज्जीवन कुछ कुट्टन, पीडन, तर्जन, ताडन, वध, बंध परिक्लेश से विरत और कुछ से अविरत हैं।
सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा सुसाहू। एगच्चाओ पाणाइवायाओ पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया जाव एगच्चाओ कुट्टण-पिट्टणतज्जण-ताडण-वह-बंधपरिकिलेसाओ पडिविरया जावज्जीवाए एगच्चाओ अप्पडिविरया। जे यावऽण्णे तहप्पगारा सावज्जा अबोहिया कम्मंता परपाणपरितावणकरा कज्जंति, तओ वि एगच्चाओ . पडिविरया जावज्जीवाए, एगच्चाओ अप्पडिविरया। से जहाणामए समणोवासगा भवंति–अभिगयजीवाऽजीवा, उवलद्धपुण्णपावा, आसव-संवर-वेयण-णिज्जर-किरियाऽहिकरण-बंध-मोक्खकुसला,
जो इस प्रकार के अन्य सावध, अबोधि करने वाले, दूसरे प्राणियों को परितप्त करने वाले कर्म-व्यवहार किए जाते हैं। उनमें से भी कुछ से यावज्जीवन विरत होते हैं और कुछ से अविरत होते हैं। कुछ ऐसे श्रमणोपासक होते हैं जो जीव-अजीव को जानने वाले, पुण्य-पाप के मर्म को समझने वाले, आम्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध और मोक्ष के विषय में कुशल होते हैं।