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क्रिया अध्ययन
३. एसणासमियस्स, ४. आयाणभंडमत्तणिक्खेवणासमियस्स,
९५७ । ३. एषणासमिति से युक्त, ४. पात्र, उपकरण आदि के ग्रहण करने और रखने की समिति
से युक्त, ५. मल-मूत्र कफ, श्लेष्म और मैल की परिष्ठापना समिति से
युक्त,
५. उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाणजल्लपारिट्ठावणिया
समियस्स। १. मणसमियस्स, २. वइसमियस्स, ३. कायसमियस्स १. मणगुत्तस्स, २. वइगुत्तस्स, ३. कायगुत्तस्स, गुत्तस्स गुत्तिंदियस्स गुत्तबंभचारिस्स आउत्तं गच्छमाणस्स, आउत्तं चिट्ठमाणस्स, आउत्तं णिसीयमाणस्स, आउत्तं तुयट्टमाणस्स आउत्तं भुंजमाणस्स, आउत्तं भासमाणस्स आउत्तं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं गेण्हमाणस्स वा, णिक्खिवमाणस्स वा जाव चक्खुपम्हणिवायमवि अस्थि वेमाया सुहुमा किरिया इरियावहिया नामंकज्जइ।
सा पढमसमए बद्धपुट्ठा। बिइयसमए वेइया, तइयसमए णिज्जिण्णा, सा बद्धा पुट्ठा उदीरिया वेइया णिज्जिण्णा सेयकाले अकम्म याऽवि भवइ।
एवं खलु तस्स तप्पत्तियं असावज्जे त्ति आहिज्जइ।
तेरसमे किरियाठाणे इरियावहिए त्ति आहिए। से बेमि-जे य अतीता, जे य पप्पन्ना, जे य आगमिस्सा अरहंता भगवंता सव्वे ते एयाई चेव तेरस किरियाठाणाईभासिंसुवा, भासंति वा, भासिस्संति वा,
१. मनसमिति, २. वचनसमिति, ३. कायसमिति से युक्त १. मनोगुप्ति, २. वचनगुप्ति, ३. कायगुप्ति से गुप्त, जिसकी इन्द्रियां ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों से गुप्त हैं,जो साधक उपयोग सहित गमन करता है, खड़ा होता है, बैठता है, करवट बदलता है, भोजन करता है, बोलता है, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन आदि को ग्रहण करता है और उपयोग पूर्वक ही इन्हें रखता-उठाता है यावत आँखों की पलकें भी उपयोगसहित झपकाता है ऐसे साधु में विविध मात्रा वाली सूक्ष्म ईयापथिकी क्रिया होती है। वह प्रथम समय में बद्ध स्पृष्ट होती है, द्वितीय समय में उसका अनुभव होता है, तृतीय समय में उसकी निर्जरा होती है। इस प्रकार वह ईर्यापथिकी क्रिया क्रमशः बद्ध स्पृष्ट, उदीरित, वेदित और निर्जीर्ण होती है और आगामी काल में वह अकर्मभाव को प्राप्त होती है। इस प्रकार उस संवृत अणगार की ऐर्यापथिक क्रिया असावद्य कही जाती है। यह तेरहवाँ क्रिया स्थान ईर्यापथिक कहा गया है। (श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं-) “मैं कहता हूँ कि भूतकाल में जितने तीर्थङ्कर हुए हैं, वर्तमान काल में जितने तीर्थङ्कर हैं और भविष्य में जितने भी तीर्थङ्कर होंगे, उन सभी ने इन तेरह क्रियास्थानों का कथन किया है, करते हैं तथा करेंगे, इसी प्रकार प्ररूपणा की है, प्ररूपणा करते हैं तथा प्ररूपणा करेंगे। इसी प्रकार उन्होंने तेरहवें क्रिया स्थान का सेवन किया है, सेवन करते हैं और सेवन करेंगे। इनमें से तेरहवें क्रियास्थान में वर्तमान जीव सिद्ध हुए हैं, होते हैं
और होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त किया है, करते हैं और करेंगे। इस प्रकार वह आत्मार्थी, आत्मा का हित करने वाला, आत्मगुप्त, आत्मयोगी, आत्मा के लिए पराक्रम करने वाला, आत्मा की रक्षा करने वाला, आत्मा की अनुकम्पा करने वाला, आत्मा का जगत् से उद्धार करने वाला भिक्षु अपनी आत्मा को समस्त पापों से
निवृत्त करे। ६३. धर्मपक्षीय पुरुष का वैशिष्ट्य
अब दूसरे स्थान धर्मपक्ष का विकल्प इस प्रकार कहा जाता हैपूर्व यावत् दक्षिण दिशा में कुछ मनुष्य होते हैं, यथा
पण्णविंसुवा, पण्णवेंति वा, पण्णविस्संति वा। एवं चेव तेरसमं किरियाठाणं सेविंसु वा, सेवंति वा, सेविस्संति वा। _ -सूय. सु. २, अ.२, सु.७०७ एयंसि चेव तेरसमे किरियाठाणे वट्टमाणा जीवा सिज्झिंसु जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिसुवा, करेंति वा, करिस्संति वा। एवं से भिक्खू आयट्ठी आयहिए आयगुत्ते आयजोगी आयपरक्कमे आयरक्खिए आयाणुकंपए आयनिप्फेडए आयाणमेव पडिसाहरेज्जासि त्ति बेमि।
-सूय.सु.२, अ.२,सु.७२१
६३. धम्म पक्खीय पुरिसस्स विसिठ्ठत्तं
अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिज्जइइह खलु पाईणं वा जाव दाहिणं वा, संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहाआरिया वेगे,अणारिया वेगे, उच्चागोया वेगे, णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे, हस्समंता वेगे,
कुछ आर्य होते हैं और कुछ अनार्य, कुछ उच्च गोत्र वाले होते हैं और कुछ नीच गोत्र वाले होते हैं, कुछ लंबे होते हैं और कुछ नाटे,