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क्रिया अध्ययन
५६. तेरस किरियाठाणणामाणि
तत्थ णं जे से पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे तस्स णं अयमढेंइह खलु पाईणं वा जाव दाहिणं वा संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहाआरिया वेगे, अणारिया वेगे, उच्चागोया वेगे,णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे, हस्समंतावेगे, सुवण्णा वेगे, दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे, दुरूवा वेगे। तेसिं च णं इमं एयारूवं दंड समायाणं संपेहाए,तं जहा
णेरइएसु, तिरिक्खजोणिएसु, माणुसेसु, देवेसु, जे यावन्ने तहप्पगारा पाणा विण्णू वेयणं वेदेति
तेसिं पिय णं इमाइं तेरस किरियाठाणाई भवंतीति मक्खायाई, तं जहा१.अट्ठादंडे,२.अणट्ठादंडे,३.हिंसादंडे, ४.अकम्हादंडे, ५.दिट्ठिविपरियासियादंडे, ६. मोसवत्तिए, ७.अदिन्नादाणवत्तिए,८.अज्झथिए,९.माणवत्तिए, १०. मित्तदोसवत्तिए, ११. मायावत्तिए, १२. लोभवत्तिए, १३.इरियावहिए।
-सूय. सु.२, अ.२, सु.६९४
- ९४१ ) ५६. तेरह क्रिया स्थानों के नाम
इन दो स्थानों में से प्रथम स्थान अधर्मपक्ष का जो विकल्प है उसका यह अर्थ है कि"इस लोक में पूर्व यावत् दक्षिण दिशा में कुछ मनुष्य होते हैं, यथाकई आर्य होते हैं और कई अनार्य होते हैं। कई उच्चगोत्रीय होते हैं और कई नीचगोत्रीय होते हैं। कई लम्बे कद के होते हैं और कई छोटे कद के होते हैं। कई सुन्दर वर्ण के होते हैं और कई बुरे वर्ण के होते हैं। कई सुरूप होते हैं और कई कुरूप होते हैं। उन आर्य आदि मनुष्यों में इस प्रकार का दण्ड समादान (हिंसात्मक आचरण) देखा जाता है, यथानारकों में, तिर्यञ्चयोनिकों में, मनुष्यों में और देवों में, जो इसी प्रकार के समझदार प्राणी हैं, वे सुख-दुख का वेदन करते हैं, उनमें ये तेरह प्रकार के क्रिया स्थान हैं, वे इस प्रकार कहे गये हैं, यथा(१) अर्थदण्ड (सप्रयोजन हिंसा) (२) अनर्थदण्ड (निष्प्रयोजन हिंसा) (३) हिंसादण्ड (हिंसा के प्रति हिंसा) (४) अकस्मात् दण्ड (अकस्मात् की जाने वाली हिंसा) (५) दृष्टि विपर्यासदण्ड (मतिभ्रम से होने वाली हिंसा) (६) मृषाप्रत्ययिक (झूठ से होने वाली क्रिया)(७) अदत्तादानप्रत्ययिक (चोरी से होने वाली क्रिया) (८) अध्यात्मप्रत्ययिक (दुश्चिन्तन से होने वाली क्रिया)(९) मान प्रत्ययिक (अभिमान से होने वाली क्रिया)(१०) मित्रद्वेषप्रत्ययिक (मित्र से द्वेष होने पर होने वाली क्रिया) (११) माया प्रत्ययिक, (माया से होने वाली क्रिया) (१२) लोभ-प्रत्ययिक (लोभ से होने वाली क्रिया)(१३) ईर्यापथिक (केवल गमनागमन के निमित्त से
होने वाली क्रिया)। ५७. अधर्म पक्ष के क्रिया स्थानों के स्वरूप का प्ररूपण
१-पहला दण्ड समादान अर्थदण्ड प्रत्ययिक कहा जाता हैजैसे कोई पुरुषअपने लिए, जाति के लिए, घर के लिए, परिवार के लिए, मित्र के लिए अथवा नाग, भूत और यक्ष के लिए, त्रस और स्थावर जीवों को स्वयं दण्ड देता है। दूसरों से दण्ड दिलवाता है, दण्ड देते हुए का अनुमोदन करता है। उस पुरुष को उस दण्ड के निमित्त से सावध क्रिया लगती है। यह पहला अर्थदण्ड प्रत्ययिक दण्डसमादान कहा गया है। २-अब दूसरा अनर्थदण्ड प्रत्ययिक दण्डसमादान कहा जाता है
५७. अधम्मपक्खस्स किरियाठाणाण सरूव परूवणं
१- पढमे दंडसमादाणे अट्ठादंडवत्तिए त्ति आहिज्जइ, से जहाणामए केइ पुरिसेआयहेउं वा, णाइहेउं वा, अगारहेउं वा, परिवारहेउं वा, मित्तहेउवा,णागहेउवा, भूतहेउवा, जक्खहेउवा, तं दंडं तस-थावरेहिं पाणेहिं सयमेव णिसिरइ, अण्णेण वि णिसिरावेइ, अण्णं पि णिसिरंतं समणुजाणइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं “सावज्जे" ति आहिज्जइ, पढमे दंडसमादाणे अट्ठादंडवत्तिए त्ति आहिए। २-अहावरे दोच्चे दंडसमादाणे अणट्ठादंडवत्तिए ति आहिज्जइ, (१) से जहाणामए केइ पुरिसे जे इमे तसा पाणा भवंति ,
(१) जैसे कोई पुरुष जो ये त्रसप्राणी हैं
१. (क) सम.सम.१३,सु.१५-२४
(ख)
आ.अ.४,सु.२६